घास व पत्ते खाकर बचाई जान, 29वें दिन साथियों के साथ सेना के कैंप पहुंचे थे कबूल सिंह
बर्फीली पहाड़ी होने के कारण कबूल सिंह साथियों के साथ भटकते हुए सरहद पार कर चीन के इलाके में चले गए। लगातार 21 दिन तक बिना खाना-पानी के वे लोग भटकते रहे। जीवित रहने के लिए 22वें दिन घास व पत्ते खाए।
नई दिल्ली [संजय बर्मन]। पाकिस्तान व चीन के साथ युद्ध में कई वीर सपूतों ने मातृभूमि की बलिवेदी पर अपने प्राण न्यौछावर किए। आज भी उन जवानों का जिक्र आते ही मन में देशप्रेम की भावना जागृत हो जाती है। रणभूमि में विषम परिस्थितियां होने के बावजूद हमारे जांबाजों ने देश की रक्षा की। कबूल सिंह भी उन्हीं जांबाज सैनिकों में से एक थे। युद्धस्थल पर पैर में गोली लगने के बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी। उनके पैर रणभूमि में अंगद की तरह जमे थे। मजबूती से लड़ते हुए चीनी प्रहार का सामना किया।
दुश्मनों के नापाक इरादों को चकनाचूर किया
टटेसर गांव के रहने वाले कबूल सिंह ने चीन और पाकिस्तान के साथ युद्ध में अपना अदम्य साहस दिखाते हुए दुश्मनों के नापाक इरादों को चकनाचूर किया। वह बहुत गरीब परिवार से थे, लेकिन इस परिवार के दिल में कूट-कूटकर देशप्रेम भरा था। मातृभूमि की रक्षा के लिए उनका परिवार हमेशा आगे आया।
साहसी थे कबूल सिंह
कबूल सिंह व उनके बड़े व छोटे भाई भी सेना में भर्ती हुए थे। वर्ष 1957 में कुतुबगढ़ में आर्मी की खुली भर्ती में कबूल सिंह का चयन सिपाही के तौर पर हुआ था। उनकी पत्नी धनपती बताती हैं कि उनके पति काफी साहसी थे। वह सेना में जाट रेजीमेंट में थे। युद्धस्थल पर वीरता के साथ लड़ने के कारण उन्हें पूरे जीवन में पांच मेडल मिले।
जख्मी होने पर भी लड़ते रहे कबूल
धनपती बताती हैं कि 1962 में चीन के साथ युद्ध में कबूल सिंह नाथू ला दर्रे के पास बर्फीली पहाड़ी में तैनात थे। सुबह चार बजे अंधेरे में चीनी सैनिकों ने उनके मोर्चे पर गोलीबारी शुरू कर दी। कबूल और साथियों ने भी मोर्चा संभालते हुए जवाबी कार्रवाई की। दोनों ओर से गोलीबारी में उनके दो साथी शहीद हो गए। कबूल सिंह के पैर में भी गोली लगी। जख्मी हालत में ही वह दो साथियों सहित उस जगह की तलाश करने लगे, जहां से चीनी सैनिक फायरिंग कर रहे थे।
ग्रामीणों ने दीपावली नहीं मनाई
बर्फीली पहाड़ी होने के कारण कबूल सिंह साथियों के साथ भटकते हुए सरहद पार कर चीन के इलाके में चले गए। लगातार 21 दिन तक बिना खाना-पानी के वे लोग भटकते रहे। जीवित रहने के लिए 22वें दिन घास व पत्ते खाए। इसी बीच भारतीय सेना द्वारा उनके घर गुमशुदगी का तार भेजा गया। इससे पूरा गांव शोकाकुल हो गया। ग्रामीणों ने इसी दुख में दीपावली भी नहीं मनाई। भटकने के बाद 29वें दिन तीनों सेना के कैंप में पहुंचे। इसके बाद कबूल सिंह के मिल जाने का तार फिर घर पर भेजा गया। उन्होंने 1965 में पाकिस्तान के साथ युद्ध में भी दुश्मनों को करारा जवाब दिया था। पाक सैनिकों को वापस लौटने पर मजबूर कर दिया था।
रणभूमि में दिखाई वीरता, मिले कई तमगे
कबूल सिंह कई बड़ी लड़ाइयों में शामिल रहे। 1958 में जम्मू-कश्मीर की अलगाववादियों से लड़ाई, 1962 में चीन के साथ युद्ध व तिब्बत बॉर्डर के सुगर सेक्टर के युद्ध में शामिल थे। उन्हें इंटरनेशनल कमीशन फॉर सुपरविजन व कंट्रोल सर्विस का तमगा, समर सेवा का तमगा (1965), सैन्य सेवा व विदेश सेवा का तमगा, 1965 में रक्षा का तमगा दिया गया।