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अधिक दिन चुप नहीं बैठता सत्ता से वंचित समाज, देश के नामी प्रोफेसर की टिप्पणी

जाति की परंपरागत राजनीति करने वाले दलों के लिए इस लोकसभा चुनाव ने खतरे की घंटी बजा दी है। जातिगत राजनीति का स्वरूप अब पूरी तरह बदल गया है।

By JP YadavEdited By: Published: Tue, 28 May 2019 11:08 AM (IST)Updated: Tue, 28 May 2019 02:10 PM (IST)
अधिक दिन चुप नहीं बैठता सत्ता से वंचित समाज, देश के नामी प्रोफेसर की टिप्पणी
अधिक दिन चुप नहीं बैठता सत्ता से वंचित समाज, देश के नामी प्रोफेसर की टिप्पणी

नोएडा [आशुतोष अग्निहोत्री]। आज के समय में हर समाज और वर्ग सियासत में अपना मजबूत प्रतिनधित्व चाहता है। क्षेत्रीय दल वैचारिक और परंपरागत वोट बैंक के सीमित दायरे तक सिमटे रहे, जबकि भाजपा ने इसे भांपकर समाज के उन वर्गों को एकजुट किया जो लंबे समय से शासन-सत्ता में प्रतिनिधित्व से वंचित थे। परिणाम सबके सामने है। भाजपा जहां प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में वापस आई है, वहीं क्षेत्रीय दलों के सामने अस्तित्व बचाने की चुनौती आ खड़ी हुई है। जाति की परंपरागत राजनीति करने वाले दलों के लिए इस लोकसभा चुनाव ने खतरे की घंटी बजा दी है। जातिगत राजनीति का स्वरूप अब पूरी तरह बदल गया है और क्षेत्रीय दलों को उसी के अनुसार रणनीति बनानी होगी। ‘क्या दम तोड़ रही जातिगत राजनीति?’ विषय पर दैनिक जागरण कार्यालय में आयोजित विमर्श में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष और दलित चिंतक प्रोफेसर विवेक कुमार ने ये बातें कहीं।

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प्रोफेसर विवेक ने कहा कि सियासत जिस मोड़ पर है उसमें अभी और बदलाव देखने को मिलेंगे। प्रधानमंत्री ने जिस प्रकार सबका साथ, सबका विकास और विश्वास का नारा दिया है, वह जाति की राजनीति करने वाले दलों के लिए संकेत है कि समय रहते अपनी जड़ों की ओर लौटें। अन्यथा भाजपा को सत्ता में आने के लिए किसी मुद्दे की जरूरत ही नहीं रहेगी। हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि यह सियायत है और सत्ता से वंचित समाज अधिक दिनों तक चुप नहीं बैठता। आने वाले चुनावों में अभी सियासत के कई रंग देखने को मिलेंगे।

राष्ट्रवाद के आगे सारे मुद्दे धराशायी

प्रोफेसर विवेक ने कहा कि यह लोकसभा चुनाव राष्ट्रवाद और क्षेत्रवाद के नाम पर लड़ा गया। एक ओर भाजपा के पास प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी का चेहरा था, वहीं दूसरी ओर विपक्षी पार्टियों के पास न तो कोई स्पष्ट विजन था और न चेहरा। वह जनता को यह भरोसा दिलाने में विफल रहे कि चुनाव के बाद प्रधानमंत्री पद का उनका दावेदार कौन होगा। उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा और रालोद का गठबंधन हो या बिहार में राजद, रालोसपा, हम और अन्य पार्टियों का महागठबंधन। दोनों जगह सियासी दलों ने जातिगत गुणाभाग तो लगा लिया लेकिन जमीनी स्तर पर जनता से नहीं जुड़ पाए। सपा पिछड़ों की राजनीति करती है, लेकिन इस चुनाव में वह यादवों के इर्द-गिर्द सिमटी रही। बसपा दलितों की राजनीति के उलट सर्व समाज के विकास का नारा देती रही। इससे दोनों पार्टियों का मतदाता अंत तक दुविधा में रहा।

भाजपा ने कराए 200 से अधिक सम्मेलन

उत्तर प्रदेश का हवाला देते हुए प्रोफेसर विवेक कुमार ने कहा कि भाजपा ने एक ही दिन में माहौल नहीं बनाया। इसकी तैयारी बहुत पहले से शूरू हो गई थी। भाजपा ने प्रदेश में 200 से अधिक जातिगत सम्मेलन कराए, विभिन्न वर्गो में अपनी पैठ बनाने के लिए उनके कार्यकर्ता बूथ और पन्ना स्तर तक गए। गोरखपुर में भाजपा प्रत्याशी रवि किशन ने खुलेआम मंच पर अपनी जाति का जिक्र किया। यहां तक की चुनाव में स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी जाति का हवाला दिया। उन्होंने कहा कि विपक्ष ने जिस मुद्दे को उठाने का प्रयास किया, भाजपा ने इसे उसी स्तर पर और अधिक बढ़ा- चढ़ाकर पेश किया और सियासी लाभ ले लिया। हरियाणा और दिल्ली में भी यही हाल रहा। यहां भी मुद्दों से हटकर चुनाव राष्ट्रवाद बनाम अन्य हो गया। कांग्रेस की अपनी अलग राह थी। ऐसे में जनता को जो विकल्प बेहतर लगा उसने उसे ही चुना।

आंबेडकर ने पहल की, कांशीराम ने दिलाई पहचान

भारत में जातिगत राजनीति को विस्तार से बताते हुए प्रोफेसर विवेक कुमार ने कहा कि आजादी से पहले वर्ष 1928, 1929 व 1930 में गोलमेज सम्मेलन के दौरान डॉ भीमराव आंबेडकर ने भारतीय दलितों के लिए पृथक चुनाव व्यवस्था की बात कही थी। आंबेडकर चाहते थे कि दलित अपना प्रतिनिधि राजनीति में स्वयं चुनें, जिससे अपने समाज को उचित हिस्सेदारी दिला सकें। हालांकि, तब महात्मा गांधी ने इसका विरोध किया और वह व्यवस्था परवान नहीं चढ़ सकी। वर्ष 1984 में कांशीराम ने बसपा की स्थापना करके दलितों को एक मंच प्रदान किया। वर्ष 1992 में समाजवादी पार्टी का गठन करके मुलायम सिंह यादव ने जातीय राजनीति को और आगे बढ़ाया। आज उत्तर प्रदेश ही क्या पूरे देश में जाति के आधार पर राजनीतिक दल बने हुए हैं। वर्तमान में देश की संसद में 88 ओबीसी और 40 अनुसूचित जाति के प्रतिनिधि हैं, बावजूद इसके दलितों की आवाज को मजबूती से उठाने वाला कोई नहीं है।

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