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Delhi News: शहतूत, फालसा, किरनी, लोकाट के बागों से महकती थी दिल्ली, अब कहीं नजर नहीं आती

दिल्ली के बागों में मुगलई पान ज्यादा था इनमें शहतूत किरनी लोकाट और फालसे के पेड़ अधिक थे। आजादपुर मंडी भी पहले बाग हुआ करती थी जोकि लोहारू के नवाब का बाग था। 1980 से 90 के बीच के दौर में जब बदलाव का असर पारंपरिक खानपान भी पर पड़ा।

By Geetarjun GautamEdited By: Published: Fri, 20 May 2022 03:43 PM (IST)Updated: Sat, 21 May 2022 01:37 PM (IST)
Delhi News: शहतूत, फालसा, किरनी, लोकाट के बागों से महकती थी दिल्ली, अब कहीं नजर नहीं आती
शहतूत, फालसा, किरनी, लोकाट के बागों से महकती थी दिल्ली

नई दिल्ली [रितु राणा]। मुझे याद है जब हम बड़े हो रहे थे, यानि जब मैं अपने स्कूल से कालेज के दौर में प्रवेश कर रहा था, दिल्ली के चारों ओर बाग और खेत हुआ करते थे। बागों की दिल्ली को मैंने कंक्रीट के जंगल में तब्दील होते हुए देखा है। अब भी वो दूर दूर तक खुली जमीन, शुद्ध हवा और स्वच्छ वातावरण से भरी दिल्ली बहुत याद आती है। जैसे जैसे हम बड़े हो रहे थे, वैसे वैसे दिल्ली का स्वरूप बदलने लगा था। धीर धीरे सभी बाग, खेत कट गए और खत्म हो गए। उनकी जगह नए शहर और बस्तियां बस गई। नई सड़कें और फ्लाइओवर बन गए। सबसे अधिक बाग उत्तरी दिल्ली में थे। अशोक विहार के पास राणा प्रताप बाग से आगे बहुत बाग थे। दिल्ली के इन बागों को ज्यादातर मुगलों ने लगाया था, इसलिए इनमें शहतूत, किरनी, लोकाट और फालसे के पेड़ अधिक थे। आजादपुर मंडी भी पहले बाग हुआ करती थी, जोकि लोहारू के नवाब का बाग था। मंडी के सामने पंचवटी बाग जुगल किशोर नंबरदार का था। वहीं, आसपास नानी वाला बाग और परमेश्वरी बाग भी था, अब यहां सभी जगह बस्तियां बस गई हैं।

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पहली बार 1947, फिर 80 में बदला दिल्ली का स्वरूप

1947 में देश के बंटवारे के बाद पाकिस्तान से काफी संख्या में शरणार्थी दिल्ली आए और यहां से पाकिस्तान भी गए। उस समय दिल्ली के ढांचे में बदलाव हुआ। फिर 1980 में एशियार्ड हुआ, तब दिल्ली का स्वरूप बहुत बदल गया। यहां सड़कों और पुलों के जाल बिछने शुरू हुए और बड़े पैमाने पर मजदूरों की जरूरत पड़ी। पूर्व से काफी संख्या में मजदूर आए और वह स्थायी रूप से यहीं बस गए। तब बड़े पैमाने पर झुग्गी बस्ती बसनी शुरू हुई, रेलवे लाइन्स के साथ भी बहुत बस्तियां बसीं। जहां भी लोगों को जगह मिलती वहां अपने आशियाने उन्होंने बसा लिए।

दिल्ली ने सुरक्षा के साथ रोजगार भी दिया

तब दिल्ली कई मायनों में सुरक्षित थी, यहां अच्छा रोजगार मिले न मिले लेकिन पेट भरने लायक रोजगार सभी को मिल जाता था। केवल गरीब मजदूर ही नहीं, बल्कि यहां बड़े घरानों के लोग भी आकर बसे। 1977 में दिल्ली के अंदर जनता पार्टी का प्रयोग फेल हो गया था, तब यहां छात्र आंदोलन, मजदूर आंदोलन, किसान आंदोलन बहुत होते थे, जोकि जनता पार्टी का प्रयोग फेल होने के बाद 80 से पहले खत्म हो गए थे। फिर 80 के दशक के बाद देश के कई हिस्सों में आंदोलन शुरू हुए, इनमें जो अलगाववादी आंदोलन हुए, उसके फलस्वरूप संपन्न लोगों ने भी दिल्ली आकर अपना आशियाना बना लिया। उत्तर पूर्वी राज्यों में मारवाड़ियों के विरुद्ध आंदोलन हुए, तब मारवाड़ी भी दिल्ली आकर बसे। उससे पहल यह लोग दिल्ली कभी नहीं आते थे। इसका बहुत बड़ा प्रभाव दिल्ली की बोलचाल, खानपान और राजनीति पर भी पड़ा। पहले दिल्ली की राजनीति दो ध्रुवों में बंटी थी जिसमें बनिया और पंजाबी थे, कभी कभी अल्पसंख्यक भी इसका हिस्सा हो जाते थे। दूसरे राज्यों के लोगों के आने के बाद यहां की राजनीति बदली, फिर पूर्व क्षेत्रों के लोगों का प्रतिनिधित्व भी राजनीति में बढ़ा, जोकि बहुत बड़ा परिवर्तन था।

80 से 90 के बीच बदल गया खानपान

80 से 90 के बीच का दौर ऐसा था, जब तेजी से दिल्ली बदली और इसका प्रभाव यहां के पारंपरिक खानपान भी पर पड़ा। यहां बाहरी राज्यों का खानपान लिट्टी चौखा, पंचमेव दाल, मराठी और राजस्थानी खाना मिलने गया और लोकप्रिय होता चला गया। पहले यहां के लोग रोटी, दाल, सब्जी और कभी कभी लोग बेड़मी पूड़ी और दही की पकौड़ी ही खाते थे। इतना ही नहीं मिठाईयों का स्वरूप भी बदला, पहले सिर्फ जलेबी, गुलाब जामुन, लड्डू, बालू शाही और इमरती जैसी मिठाई मिलती थी। फिर बीकानेर, हल्दीराम जैसे बड़े बड़े ब्रांड खुले गए। इनके बीच की प्रतिद्वंद्विता से बाजार में मिठाईयों की भरमार हो गई। पहले यहां के लोग घर में ज्यादा खाते थे, फिर बाहर बाजार और रेस्तरां में जाकर खान भी शुरू कर दिया। चाट, छोले भटूरे, गोल गप्पे, टिक्की, समोसे, जैसे स्ट्रीट फूड मशहूर हो गए।

71 वर्षीय नानक चंद का जन्म छह फरवरी 1951 को दिल्ली में हुआ। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कालेज से स्नातक व स्नातकोत्तर तक की पढ़ाई की है। कुछ वर्ष दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाया भी। 2010 में नानक चंद केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड के संयुक्त निदेशक के पद से सेवानिवृत हुए। इसके बाद 2003 से 2008 तक हिंदी अकादमी दिल्ली के सचिव भी रहे। वर्तमान में डीएवी कालेज मैंनेजिंग कमेटी के मानद कोषाध्यक्ष के रूप में अपनी सेवा दे रहे हैं।


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