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Draupadi Murmu: अमृत काल में सकारात्मक पहल, आदिवासी और महिला का सम्मान

सबका साथ और सबका विकास को वामपंथ से जुड़े बौद्धिकों ने मुसलमानों से जोड़कर देखने और व्याख्यायित करने की कोशिश की। पिछले आठ साल में नरेन्द्र मोदी सरकार के निर्णयों को देखा जाए तो ये नारा नहीं बल्कि सभी वर्गों को साथ लेकर आगे बढ़ने का उपक्रम नजर आता है।

By Vinay Kumar TiwariEdited By: Published: Sun, 26 Jun 2022 10:12 AM (IST)Updated: Sun, 26 Jun 2022 10:12 AM (IST)
Draupadi Murmu: अमृत काल में सकारात्मक पहल, आदिवासी और महिला का सम्मान
Draupadi Murmu: राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की तरफ से द्रौपदी मुर्मू को उम्मीदवार बनाया गया है

नई दिल्ली [अनंत विजय]। देश में इस वक्त राष्ट्रपति चुनाव की हलचल है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की तरफ से द्रौपदी मुर्मू को उम्मीदवार बनाया गया है जबकि विपक्ष की ओर से पूर्व बीजेपी नेता यशवंत सिन्हा राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार हैं। नरेन्द्र मोदी के बारे में कहा जाता है कि वो हमेशा अपने निणयों से चौंकाते हैं। इस बार भी उन्होंने ओडीशा की आदिवासी महिला नेता द्रोपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर चौंकाया।

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नरेन्द्र मोदी के इन चौंकाने वाले निर्णयों के पीछे एक सुविचारित और सुचिंतित सोच होता है। जब द्रोपदी मुर्मू के नाम की घोषणा हुई तो उसको लेकर विपक्षी खेमे से सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं आई। हर चीज में, हर निर्णय में नकारात्मकता खोजने वाले लिबरल झंडाबरदारों ने भी द्रोपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने के निर्णय को भी उसी ढंग से लिया। कुछ लोगों ने इस आधार पर इस निर्णय की आलोचना आरंभ कर दी कि राष्ट्रपति बनाकर किसी समुदाय का क्या भला हो सकता है। क्या ए पी जे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बनाने से मुसलमानों का भला हो गया।

ऐसे बालक बुद्धि लोगों को राजनीतिक टिप्पणियों से बचना चाहिए। राजनीति में हमेशा से प्रतीकों का महत्व रहा है। प्रतीकों की राजनीति का असर भी समाज पर होता है। आज दलितों में अपने सम्मान का भाव गाढ़ा हुआ है। इसके पीछे के कारणों की पड़ताल करेंगे तो उसमें एक कारण प्रतीकों की राजनीति भी नजर आती है। इस तरह के प्रतीकों से किसी समुदाय के लोगों के मन में सम्मान का भाव तो जगता ही है वो समाज के अन्य समुदा के लोगों के साथ जुड़ते भी हैं। उनके अंदर ये भावना भी उत्पन्न होती है कि देश उनके समुदाय का सम्मान करता है और उनके बीच का कोई किसी भी सर्वोच्च पद पर पहुंच सकता हैं। ये भावना और ये सोच परोक्ष रूप से देश को मजबूत करती है। किसी भी देश की जनता का जब उस देश की व्यवस्था में भरोसा गाढ़ा होता है तो वो राष्ट्रहित में होता है।

बालक बुद्धि लिबरल्स को ये समझना चाहिए कि जब द्रोपदी मुर्मू राष्ट्रपति बन जाएंगी तो देश के आदिवासी समुदाय के लोगों पर उसका कितना सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। आदिवासी समुदाय के लोग जब ये देखेंगे कि देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर उनके बीच की एक महिला विराजमान है तो उनके अंदर जो गर्व का भाव पैदा होगा वो हमारे राष्ट्र के समावेशी आधार को मजबूती प्रदान करेगा। एक आदिवासी महिला का नाम देश के सबसे उच्च संवैधानिक पद के लिए प्रस्तावित करने के लिए स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष से अधिक उपयुक्त कोई समय हो नहीं सकता। राजनीति में हर कदम के प्रतीकात्मक महत्व के साथ साथ जमीनी प्रबाव भी होता है।

द्रोपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने कई स्तर पर जन आकांक्षा का ध्यान रखा। अगर हम ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करें तो इस वक्त ओडीशा का जो क्षेत्र है वो लंबे कालखंड से अपनी उपेक्षा को लेकर कभी मुखर तो कभी मौन विरोध करता रहा है। प्रचीन भारत के इतिहास पर नजर डालें तो सम्राट अशोक के शासनकाल में कलिंग में भयानक युद्ध लड़ा गया था। इस युद्ध की भयावहता के बारे में बहुत अधिक लिखा जा चुका है। उस युद्ध के बाद उस क्षेत्र पर या उस क्षेत्र के लोगों पर बहुत अधिक ध्यान दिया हो ऐसा उल्लेख इतिहास की पुस्तकों में नहीं मिलता है।

कलिंग युद्ध के बाद एक लंबा कालखंड बीतता है। उसके बाद जब मुगलों ने उस क्षेत्र पर कब्जा किया तो उन्होंने वहां लूटपाट की, वहां के नागरिकों पर अत्याचर किए लेकिन उस क्षेत्र को मुख्य धारा में लाने कि कोशिश नहीं दिखती। मुगलों के बाद जब अंग्रेजों ने वहां अपना राज कायम किया तो उन्होंने भी वहां के प्राकृतिक संसाधनों को तो लूटा, मानव संसाधन का दोहन किया लेकिन उस क्षेत्र पर बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया। उस क्षेत्र में अपनी उपेक्षा को लेकर रोष भी रहा है।

ओडिया लेखक बिजय चंद्र रथ की एक पुस्तक है ‘जयी राजगुरु, खोर्धा विद्रोह के अप्रतिम क्रांतिकारी’ जिसका हिंदी में अनुवाद सुजाता शिवेन ने किया है। इस पुस्तक में ओडिशा के कम ज्ञात स्वाधीनता संग्राम सेनानी राजगुरु जयकृष्ण महापात्र की कहानी है। अंग्रेजों ने कटक पर आक्रमण करके उसको अपने अधिकार में ले लिया था। ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिक या उसके मुखिया पहले स्थानीय राजाओं के साथ समझौता करते थे और फिर खुद को मजबूत करने के बाद समझौते से मुकर जाया करते थे। इस तरह का बर्ताव ईस्ट इंडिया कंपनी ने खोर्धा के राजा के साथ किया।

कंपनी सरकार ने राजा के साथ किए गए करार को मानने से इंकार कर दिया। परिणाम ये हुआ कि वहां विद्रोह की आग सुलगने लगी। 1804 में जब वहां की जनता ने कंपनी सरकार के खिलाफ विद्रोह कर दिया। राजगुरु जयकृष्ण महापात्र ने इस विरोध का नेतृत्व किया लेकिन अंग्रेजों ने उनको बंदी बना लिया और फिर उनकी जान ले ली। पुस्तक में जनश्रुतियों के हवाले से ये बताया गया है कि कंपनी सरकार के सैनिकों ने राजगुरु को पेड़ की दो टहनियों से बांध दिया। इसके बाद उन टहनियों को विपरीत दिशा में गिरा दिया। राजगुरु का शरीर दो हिस्सों में फट गया और उनकी मृत्यु हो गई।

इस नृशंसता का कोई दस्तावेजी साक्ष्य मौजूद नहीं है लेकिन वहां के लोक में मौखिक रूप से राजगुरु की ये कहानी अब भी जीवंत है। इतिहासकारों ने इस वीर की भी उपेक्षा की। क्रांतिकारी योद्धा जयकृष्ण महापात्र, जिनको उस क्षेत्र के लोग जयी राजगुरु के नाम से जानते हैं, के संघर्ष और उनके बलिदान के बारे में कम ही लोगों को पता है। उस क्षेत्र के नायकों की उपेक्षा का ये उदाहरण है। उस क्षेत्र के कई नायक इस तरह की उपेक्षा के शिकार बने।

ये सिर्फ ओडीशा क्षेत्र की बात नहीं है बल्कि अगर पूरे देश के आदिवासियों पर नजर डालें तो अनेक ऐसे क्रांतिकारी या क्रांतिवीर हैं जिनकी इतिहास लेखन में घोर उपेक्षा की गई है। भगवान बिरसा मुंडा के बारे में तो सब जानते हैं लेकिन तिलका मांझी से लेकर सिदो मुर्मू और कान्हो मुर्मू के बारे में पूरे देश को बताया जाना चाहिए था। जून 1855 में संताल हूल विद्रोह के बारे में भी अब जाकर थोड़ी बहुत जानकारी उपलब्ध होने लगी है अन्यथा भार्तीय स्वाधीनता संग्राम के इस अध्याय के बारे में स्वाधीन भारत के इतिहासकारों ने न्याय नहीं किया।

अब भी इस विद्रोह के बारे में, उसके नायकों के बारे में, उनकी वीरता के बारे में विस्तार से राष्ट्र को बताने की आवश्यकता है। इतनी उपेक्षाओं के बीच अगर आदिवासी समाज की किसी महिला को देश के राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया गया है तो विपक्षी दलों समेत तमाम बौद्धिकों को इसका स्वागत करना चाहिए था। 2014 में जब नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने सबका साथ और सबका विकास की बात की थी। बाद में उन्होंने इसको और व्यापक बनाकर इसमें प्रयास और विश्वास भी जोड़ा।

सबका साथ और सबका विकास को वामपंथ से जुड़े बौद्धिकों ने मुसलमानों से जोड़कर देखने और व्याख्यायित करने की कोशिश की। इसको नारे और जुमला आदि कहकर उपहास भी किया। जबकि अगर पिछले आठ साल में नरेन्द्र मोदी सरकार के निर्णयों को देखा जाए तो ये नारा नहीं बल्कि भारतीय समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर आगे बढ़ने का उपक्रम नजर आता है। भारतीय संविधान भी तो यही कहता है कि बिना किसी भेदभाव के सभी वर्गों को समान अवसर मिलना चाहिए। द्रोपदी मुर्मू को देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर बिठाकर कृतज्ञ राष्ट्र उन आदिवासी नायकों को श्रद्धांजलि तो देगा ही उनको सपनों को भी साकार होते देखेगा।


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