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दिल्ली आकर भारतीय संस्कृति की खूबसूरती पर मोहित होते थे विदेशी मेहमान : डा. आरएम अग्रवाल

दिल्ली विश्वविद्यालय के पीजीडीएवी के पूर्व प्राचार्य डा. आरएम अग्रवाल के मुताबिक दिल्ली शहर का दिल इतना उदार है। यहां लोग बाहर से आए और कहीं न कहीं बस गए। चाहे शरणार्थी कालोनियां हों या खेत काटकर लोग शहरों में बसे लेकिन सभी को दिल्ली ने अपना बना लिया।

By Jp YadavEdited By: Published: Fri, 01 Jul 2022 09:37 AM (IST)Updated: Fri, 01 Jul 2022 09:37 AM (IST)
दिल्ली आकर भारतीय संस्कृति की खूबसूरती पर मोहित होते थे विदेशी मेहमान : डा. आरएम अग्रवाल
दिल्ली आकर भारतीय संस्कृति की खूबसूरती पर मोहित होते थे विदेशी मेहमान : डा. आरएम अग्रवाल

नई दिल्ली [रितु राणा]। दिल्ली विश्वविद्यालय के पीजीडीएवी के पूर्व प्राचार्य डा. आरएम अग्रवाल की यादें दिल्ली से जुड़ी हुई हैं। दशकों से दिल्ली में रह रहे डा. आरएम अग्रवाल बताते हैं कि जब मैं राजधानी आया तो बहुत छोटा था, लेकिन मुझे याद है यह बहुत खाली खाली सी थी। न लोग और न ही दूर दूर तक कोई वाहन सड़कों पर नजर आते थे।

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हम बाड़ा हिंदू राव में रहते थे, मेरा पूरा बचपन पुरानी दिल्ली में ही बीता है, बस वही एक जगह थी, जहां उन दिनों भी भीड़भाड़ रहती थी बाकी सब जगह खाली थी। कहीं खेत तो, कहीं कीकर के पेड़ के जंगल हुआ करते थे। अब जैसा पहले कुछ नहीं था, लेकिन मैंने इतने वर्षों में दिल्ली को पग पग बदलते देखा है और सभी बदलावों को दिल्ली ने अपनाया है। यही इस दिल्ली की खूबसूरती भी है, कि यहां जितने लोग आए उतने बस गए। 

70-80 के दशक के बाद बदल गई साउथ दिल्ली की सूरत

मुझे आज भी याद है साउथ दिल्ली का तो नाम ही नहीं होता था। पहले न साकेत था न रोहिणी वाला इलाका था। आइआइटी से लेकर नेहरू प्लेस तक की पूरी रोड सुनसान होती थी, वहां अकेले गुजरने में भी डर लगता था। सड़क के आसपास तब खेती हुआ करती थी। वहां सब चिराग दिल्ली गांव वालों की जमीनें हुआ करती थी, जिनमें खेती होती थी। सरकार और डीएलएफ ने अच्छे दाम देकर वो जमीनें खरीदकर कालोनियां बनाई। अंबेडकर नगर, ग्रीन पार्क, हौज खास, जीके पार्ट दो, सीआर पार्क यह सब इलाका बाद में ही बसा। हम भी 1980 में पुरानी दिल्ली से साकेत आ गए थे। तब तुगलक रोड भी खाली थी होती थी, वहां सर्दी में बहुत ठंड होती थी। घर के अंदर तक सर्द हवाएं आती थी।

दिल्ली आकर विदेशी मेहमान करते थे भारतीय संस्कृति के गुणगान दिल्ली में पहले म्यूनिसिपल कमेटी होती थी, जिसमें सब्जी मंडी से मेरे पिता डा. राम किशन भारद्वाज सबसे पहले म्यूनिसिपल कमीश्नर चुने गए। पहले काउंसलर को म्यूनिसिपल कमीश्नर कहते थे। वह पांच चुनाव जीते थे। उनके नाम पर पुरानी दिल्ली में बहादुरगढ़ रोड के पास एक सड़क भी है। पिताजी के साथ मैं अक्सर टाउन हाल और लाल किले जाता था। वहां बहुत बड़े बड़े लोग आते थे। विदेशी मेहमानों को भी वहां भोज के लिए लाया जाता था। उनका स्वागत भी बड़े शाही अंदाज में होता था। यह लोग ज्यादातर शाम के समय आते थे, उनके स्वागत के बाद भारत और उस देश का राष्ट्रीय गान होता था। फिर बुके भेंट करने के साथ ही पारंपरिक तरीके से उनका स्वागत किया जाता था। एक बार क्वीन एलिजाबेथ व प्रिंस फिलिप दिल्ली आए थे, उन्हें रामलीला मैदान लाया गया। तब जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री थे। मैं पिताजी के साथ वहां गया था, नेहरू जी ने क्वीन एलिजाबेथ को मार्बल का ताज महल भेंट किया था।

टाउन हाल और लाल किले में रिसेप्शन पर यूगोस्लाविया के प्रेजीडेंट मार्शल टीटो, रशिया के प्रेजिडेंट बुलगानिन, यूएएसए के प्रेजिडेंट डेविड आइजनोवर से भी मुलाकात हुई। जब भी इन शख्सियतों से मिलने जाता था, तब बहुत अच्छा अनुभव होता था। यह सभी विदेशी मेहमान भारत की संस्कृति पर जरूर चर्चा करते थे। यहां के लोगों के आचार विचार पर विदेशी खूब मोहित होते थे। अपने स्वागत से भी वह बहुत खुश हो जाते थे। भारत की आबादी और एकता को देखकर वह हैरान होते थे और अपने भाषण में भी यह बात बोलते कि इस देश में इतनी आबादी और अलग अलग संस्कृति होने के बाद भी एकता है, जो बहुत अच्छी बात है। वो बोलते थे कि सारी दुनिया को यहां के लोगों से सीख लेनी चाहिए। तब भारत के विदेशी संबंध तब बहुत अच्छे हुआ करते थे।

1945 में जन्मे दिल्ली विश्वविद्यालय के पीजीडीएवी के पूर्व प्राचार्य डा. आरएम अग्रवाल 1949 में परिवार के साथ लाहौर से दिल्ली आए। इन्होंने पीजीडीएवी कालेज से स्नातक की पढ़ाई की। इसके बाद एमए अंग्रेजी और पीएचडी भी दिल्ली विवि से ही की। 1969 में पीजीडीएवी कालेज में ही लेक्चरार लगे और 2001 में पीजीडीएवी सांध्य में प्राचार्य पद पर नियुक्त हुए। 2010 में इनकी सेवानिवृति हुई। वर्तमान में पुस्तक लेखन का कार्य कर रहे हैं।


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