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Diwali 2020: आइए इस दीपावली पर खुद दीपक बनकर रोशनी लुटाने का संकल्प लें

आशाओं के दीप जगमगाने लगे हैं चारों ओर। आप भी अपने आसपास नजर दौड़ाएं और अपने साथ-साथ उनके लिए भी दीपक बन जाएं जो उदासी के अंधेरे से जूझ रहे हैं। दुख-दर्द ईष्र्या या मनोविकारों से प्रभावित होने के बजाय इनसे उबरने का प्रयत्न करें।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Thu, 12 Nov 2020 12:42 PM (IST)Updated: Thu, 12 Nov 2020 12:42 PM (IST)
Diwali 2020: आइए इस दीपावली पर खुद दीपक बनकर रोशनी लुटाने का संकल्प लें
आपदा के अनिश्चतता भरे अंधियारे समय में प्रकाश का उत्सव राहत बनकर आया है।

नई दिल्ली, सीमा झा। सामान्य अर्थ में जलना नकारात्मक रूप में प्रयोग होता है। जलना यानी मुसीबत में परेशान हो जाना, बड़ी विपदा से हार जाना, टूट-बिखर जाना। लोग अहंकार की आग में ऐसे जलते हैं कि उन्हें आभास नहीं होता कि यह उन्हें खुद जला रही है। अक्सर ईष्र्या या गुस्से की आग में खुद को जला देने के बाद बचती है तो केवल पश्चाताप की राख। जरा सोचिए, ईष्र्या के वश में आकर खुद को जला देने का क्या लाभ या बदले की आग में झुलसते रहने की सार्थकता क्या है?

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कहने का अर्थ है कि अपनी मनोदशा के कारण जलते रहना जीवन का हिस्सा है। पर इसे सार्थक और अपने अनुकूल बना लेना हमारे हाथ में है। जलना बड़ी बात नहीं है पर दीये की तरह जलना सीख जाएं तो यह बड़े बदलाव का वाहक बन सकता है। यहां किसी न किसी रूप में हम सब जल रहे हैं, पर चुनौतियों से निपटने के लिए इससे पार भी पाना है। यही है दीप-पर्व का संदेश और दीये की सीख। कवयित्री महादेवी वर्मा अपनी कविता में यही कहना चाहती हैं :

किरण ने तिमिर से मांगा उतरने का सहारा कब?

अकेले दीप ने जलते समय पुकारा कब?

साथ में, यह भी जोड़ा कि...

चुनौती का करेगा क्या,

न जिसने ताप को झेला!

समय की सीख भी यही है: क्यों कुछ लोग दुख में इस कदर टूट जाते हैं कि उन्हें और कुछ दिखाई नहीं देता। हर तरफ अंधेरा नजर आता है। दीया बनना तो दूर की बात है। अमेरिकी लेखिका एमिली स्मिथ के बातें इसमें आपकी मदद कर सकती हैं। एमिली ने द पॉवर ऑफ मीनिंग- ‘फाइंडिंग फुलफिलमेंट इन अ वल्र्ड ऑब्सेस्ड विद हैप्पीनेस’ नामक किताब में इस बाबत विस्तार से चर्चा की है। उनकी मानें तो यही चीज 11 सितंबर के आतंकी हमले में कुछ अमेरिकियों में देखी गई। कुछ इस असहाय पीड़ा में बिखर गए तो कुछ ने सकारात्मक भावों यानी प्रेम और करुणा, कृतज्ञता और परोपकार को बेहतर तरीके से समझते हुए अपने जीवन में इसे उतारा भी। इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें पीड़ा नहीं हुई पर वे स्याह अंधेरे में भी रोशनी देख पा रहे थे। दरअसल, लोग किसी भी संकट के प्रति कैसी प्रतिक्रिया करते हैं यह बात मायने रखती है। यह सही है कि मन बुरी खबरों की ओर चला जाता है। पीड़ा का एहसास कुछ सोचने नहीं देता। पर सच यह भी है इस नकारात्मक स्थिति में एक-दूसरे की मदद करने की घटनाएं भीतर ही भीतर हमें प्रेरित कर रही हैं कि हम दीया बनें और खुद तपिश सहकर रोशनी लुटाएं।

संवेदनशीलता साबित करनी होगी: हम सभ्य हैं, पर क्या संवेदनशील भी हैं? हम कहीं ज्यादा आत्मकेंद्रित तो नहीं हो गए हैं? जाने-माने मनोचिकित्सक डॉ. भरत वटवानी के अनुसार, आज अवसाद के मामलों और मनोविकार से पीड़ित मरीजों की संख्या में बढ़ोत्तरी का एक कारण यह भी है। इसलिए यदि हम सभ्य हैं तो अपनी संवेदनशीलता साबित करें।

दयालुओं की आयु लंबी होती है: अमेरिका के यूएसी बर्कले ग्रेटर गुड साइंस सेंटर की हैप्पीनेस एक्सपर्ट और समाजशास्त्री क्रिस्टीन कार्टर के अनुसार, दया का भाव हमारी शारीरिक और भावनात्मक सेहत के लिए अच्छा है। दयालु लोगों की आयु लंबी होती है। जो वालंटियर के रूप में काम करते हैं, वे दर्द या पीड़ा का एहसास भी कम करते हैं। मदद करना और लेना दोनों एंजायटी कम करता है। यदि आप बच्चों को मदद करना सिखाते हैं तो वे अधिक खुश, सक्रिय और उत्साहित रहते हैं।

  • यह महत्वपूर्ण नहीं कि हम कितनी चीजें या धन देते हैं। महत्व इस बात है कि कितने प्रेम से हम लोगों की मदद करते हैं। दूसरों की कितनी परवाह करते हैं, यह कहीं अधिक मायने रखता है
  • अपनी नियमित दिनचर्या में से कुछ समय अपने आसपास और सामाजिक जीवन में योगदान के लिए निकालना संतोष देता है
  • सक्रिय रहें न कि प्रतिक्रयावादी बनें। जैसे कोई चंदा लेने आए और आपको वह पसंद नहीं तो उसे अनदेखा करने के बजाय जो उचित लगे बताएं या योगदान करें

सीखें कठिनाइयों में तपकर कुंदन बनना: मुंबई के मैग्सेसे अवॉर्ड से सम्मानित वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ. भरत वटवानी ने बताया कि नकारात्मक होकर या भयभीत होकर कुंठा या दहशत फैलाना आम है। लेकिन प्रेम बांटने, सौहार्द का प्रकाश फैलाने के लिए खुद तपना होता है। दीये की तरह जलना होता है। मैंने अपने पिता को बचपन में खो दिया और उस मुश्किल वक्त ने मेरी दुनिया की रंगत बदल दी। छोटा था तभी से किसी के दर्द से सहज जुड़ जाता रहा हूं। मुझे मदद करना अच्छा लगता था। मैं उन लोगों को करीब से देख सका, जो कठिनाइयों में तपकर कुंदन बने हैं। दूसरे की समस्या आपकी नहीं, इस सोच से बाहर निकलें। खुशी हमें तभी मिलेगी, जब हमारा परिवेश खुशहाल होगा। जमाना अच्छा है या बुरा, इन बातों पर मैं यकीन नहीं करता। इन बातों को छोड़कर अच्छाई में जुटे रहें।

मिला है दीपक बन प्रकाश फैलाने का अवसर: अभिनेता रोहिताश गौड़ ने बताया कि हम अभिनेताओं के लिए इंडस्ट्री में संघर्ष ही जलने की तरह है। परिणाम अच्छा मिले तो यह सार्थक होता है। पर जब निरंतर आहुति देने पर भी यह सकारात्मक न हो तो ताउम्र जलते रहना भाग्य में लिख जाता है। इस खास समय में हम सबने जीवन की क्षणिकता को समझा है। मैंने महसूस किया है कि अब भागमभागी बंद हो गई है। शांति और सुकून प्राथमिकता हो गई है और इसका सबसे बड़ा माध्यम है औरों की मदद करना। आप औरों के काम नहीं आए तो आपको सच्ची खुशी महसूस नहीं होगी। मैं और मेरी पत्नी ने कोरोना काल की मार से पीड़ित अपने साथी कलाकारों की मदद के लिए प्रयास किए हैं। आपदा का दौर अंधेरा लेकर आया है, तो दीया बनने का अवसर भी दे रहा है।

पाएं आंतरिक भावों, मनोवेगों पर विजय: इस प्रकृति के भीतर केवल वे ही नियम नहीं हैं, जिनसे हमारे शरीर के तथा उसके बाहर के परमाणु नियंत्रित होते हैं वरन ऐसे सूक्ष्म नियम भी हैं जो वास्तव में बाह्य प्रकृति को संचालित करने वाली अंतस्थ प्रकृति का नियमन करते हैं। बाह्य प्रकृति को जीत लेना कितना अच्छा है, कितना भव्य है पर उससे अनेक गुना अच्छा है आभ्यंतर प्रकृति पर विजय पाना। अनंत गुना अच्छा और भव्य है उन नियमों पर चलना जिनसे मनुष्य के मनोवेग, भावनाएं और इच्छाएं नियंत्रित होती हैं। इस आंतरिक भाव पर विजय पाना, मानव मन की जटिल सूक्ष्म क्रियाओं के रहस्य को समझना, पूर्णतया धर्म के अंतर्गत आता है।

स्वामी विवेकानंद की पुस्तक ‘ज्ञानयोग से साभार

बचपन से सिखाएं मदद करना: नई दिल्ली के एम्स के मनोचिकित्सा विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. सुधीर खंडेलवाल ने बताया कि सेवा भाव हमारी संस्कृति का अहम हिस्सा है। यह अलग बात है कि यह अब कम होता जा रहा है। दरअसल, सेवा भाव कई कारणों से जन्म लेता है या होता है। जैसे कुछ लोगों में विरासत से दान करने या मदद करने का जज्बा होता है। वे सामाजिक कार्यों में काफी आगे रहते हैं, क्योंकि वे घर पर ऐसा ही देखते आए हैं। कुछ लोगों में यह उनके पेशे के कारण आता है। जैसे कोरोना वारियर्स में देखा गया है। चिकित्सकों को देखें, सफाईकर्मियों को देखें। इन सबको अपने हित की परवाह कम, लोगों की अधिक रहती है। चिकित्सक लगातार इलाज में लगे रहते हैं। शुरुआती दिनों में तो इन्हें काफी परेशानी भी हुई, पर वे लगातार जुटे रहे। आर्मी में भी आप देखेंगे कि देश के लिए मर मिटने का जज्बा होता है। बेशक औरों की भलाई, सहायता करने के जज्बे के कारण लोगों में एक खास प्रकार का संतोष होता है। वे धन्यवाद पाकर जीवन के प्रति सकारात्मक होते हैं। आक्रामक नहीं होते। आत्मकेंद्रित नहीं होते। दीये की तरह शांत होते हैं और बदले में कुछ अपेक्षा नहीं रखते। यदि बच्चों को बचपन से यह भाव सिखाया जाए तो उनके बेहतर इंसान बनने में बड़ा योगदान होगा।

काम आएगी सहनशीलता: दिल्ली की वरिष्ठ मनोविज्ञानी डॉ. अरुणा ब्रूटा ने बताया कि क्या आप औरों की प्रगति से खुश होते हैं, सहनशीलता कितनी है आपमें? ये चीजें आपकी खुशी तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। अफसोस, आज ये बातें लोगों में बहुत कम देखने को मिलती हैं। अपने फायदे के लिए चाहे हम कुछ भी करना चाहते हैं। इसमें सामने वाले का कितना भी नुकसान क्यों न हो, हमें परवाह नहीं होती। यही वजह है कि अपनी इन्हीं कमजोरियों के कारण लोग छोटी-सी परेशानी को भी सहन नहीं कर पाते। अति आतुर रहते हैं। आक्रामक हो जाते हैं। भावनाओं में स्थिरता नहीं रहती। इस बात को हमेशा याद रखें कि मन को मजबूती तभी मिलेगी, जब आपमें सब्र होगा और अपनी कमजोरियों पर पकड़ रखना आएगा। खुद को ईष्र्या में जलाने के बजाय, दूसरों की सहूलियत को कम करने के बजाय दूसरों की मदद करने का विकल्प हमेशा आपके पास रहता है। अब यह आप पर है कि आप इसमें से किसे चुनते हैं। खुशी को या पीड़ा देने वाले भावों को।

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