Delhi Qutub Minar News: स्वामी ओमानंद सरस्वती ने बताया- कुतुबुद्दीन ऐबक का नहीं था कुतुबमीनार से कोई वास्ता
वर्तमान समय की महरौली पांचवीं शताब्दी में सम्राट विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक प्रसिद्ध खगोल शास्त्री वाराहमिहिर की कर्मभूमि थी। वाराहमिहिर के नाम के कारण ही यह स्थान मिहिरावली कहा जाता था जो बाद में बिगड़कर महरौली हो गया।
नई दिल्ली [वीके शुक्ला]। कुतुबमीनार का गुलाम वंश के सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक से कोई वास्ता नहीं था, यह कहना है हरियाणा के झज्जर में स्थित स्वामी ओमानंद सरस्वती पुरातत्व संग्रहालय के निदेशक व पुरालिपि विशेषज्ञ आचार्य विरजानन्द दैवकरणि का। कुतुबमीनार पर शोध करने वाले आचार्य विरजानन्द इसे चंद्रगुप्त विक्रमादित्य काल में निर्मित वाराहमिहिर की वेधशाला का सूर्य स्तंभ बताते हैं। उनका कहना है कि कुतुबुद्दीन ऐबक ने सूर्य स्तंभ के परिसर में जिस कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद को यहां बने 27 मंदिरों को तोड़कर बनवाया, वे सभी मंदिर भी इसी वेधशाला का हिस्सा थे।
ऐबक ने मस्जिद के मुख्य द्वार पर स्वयं यह लिखवाया कि उसने 27 मंदिरों को तोड़कर यह मस्जिद बनवाई, जिसमें प्रत्येक मंदिर की लागत 20 लाख ढिल्लीवाल (तत्कालीन मुद्रा) थी, लेकिन उसने यह कहीं नहीं लिखा कि कुतुबमीनार भी उसने बनवाई, क्योंकि वास्तव में कुतुबमीनार से उसका कोई संबंध ही नहीं था। उसे तो सिर्फ उसके बाद के लोगों व इतिहासकारों ने एक जैसे नाम के कारण कुतुबुद्दीन ऐबक से जोड़ दिया।
आचार्य विरजानन्द बताते हैं कि वर्तमान समय की महरौली पांचवीं शताब्दी में सम्राट विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक प्रसिद्ध खगोल शास्त्री वाराहमिहिर की कर्मभूमि थी। वाराहमिहिर के नाम के कारण ही यह स्थान मिहिरावली कहा जाता था, जो बाद में बिगड़कर महरौली हो गया। उनके अनुसार, इस सूर्य स्तंभ के पूर्व में कई नाम विश्वकर्मा प्रासाद, यमुना स्तंभ, विजय स्तंभ, कीर्ति स्तंभ, वेध स्तंभ, विक्रम स्तंभ, ध्रुव स्तंभ, विष्णुध्वज, ध्रुवध्वज, मेरुध्वज, पृथ्वीराज की लाट, दिल्ली की लाट, महरौली की लाट, इत्यादि प्रचलित रहे हैं।
1385 ईस्वी में तुगलक काल में इस सूर्य स्तंभ पर आकाशीय बिजली गिरने पर इसके ऊपर का कुछ हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया था, जिसकी उस समय फिरोजशाह तुगलक ने मरम्मत करवाई, जिसका उसने एक अभिलेख में उल्लेख भी किया है, लेकिन इसका निर्माण किसी मुस्लिम सुल्तान द्वारा किए जाने का तुगलक का भी कोई उल्लेख नहीं मिलता। चूंकि सूर्य स्तंभ वेधशाला का हिस्सा था, इसलिए उसमें सभी कुछ वैज्ञानिक तरीके से बनाया गया था। इसका मुख्य प्रवेश द्वार उत्तर की ओर यानी ध्रुव तारे की ओर है, जबकि मुस्लिम धार्मिक स्थलों का प्रवेश द्वार पूर्व की ओर होता है।
यही नहीं, ज्योतिष में 27 नक्षत्र होते हैं। इन नक्षत्रों की चाल और ऋतुओं के अनुसार उन्हें देखने के लिए 27 झरोखे बनाए गए। स्तंभ के पहले खंड में सात बड़े और तीन छोटे झरोखे, दूसरे खंड में पांच झरोखे तथा तीसरे, चौथे व पांचवें खंड में चार-चार झरोखे हैं। इसी तरह, सूर्य स्तंभ में वर्ष के दिनों की संख्या जितनी 360 सीढ़ियां बनाई गई थीं, लेकिन फिरोजशाह तुगलक द्वारा मरम्मत कराए जाने के बाद इनकी संख्या 379 हो गई।
इसके बारे में तुगलक के अभिलेख में लिखा है कि मैंने इसे पहले से भी अधिक ऊंचा बना दिया। आचार्य बताते हैं कि मौजूदा कुतुबमीनार में जगह-जगह भारतीय संस्कृति के प्रतीक कमल के फूल, चक्र, जंजीर के साथ लटकी मंदिर की घंटियां, इत्यादि उकेरी हुई हैं। ये प्रतीक मुस्लिम वास्तुकला शैली के बिलकुल उलट हैं। उनका दावा है कि यहां मीनार से निकले पत्थर में एक ओर अरबी में कुछ लिखा हुआ है, जबकि उसके पीछे देवी-देवताओं की प्रतिमाएं बनी हुई हैं, जिससे साफ पता चलता है कि सूर्य स्तंभ से पत्थर निकालकर उसके पीछे अरबी में लिखकर उसे पलट कर फिर से वहीं लगा दिया गया।
आचार्य का दावा है कि कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के दक्षिण-पूर्वी कोने पर लाल पत्थर के खंभे पर खुदा एक अभिलेख सबसे पहले उन्होंने पढ़ा और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) के संज्ञान में लाए, जिस पर एएसआइ ने भी इसके पहली बार जानकारी में आने की बात मानी। इस अभिलेख में देवनागरी के हिंदू संस्कृति से जुड़े हुए शब्द लिखे हैं, जो साफ दर्शाता है कि जिन मंदिरों को तोड़कर यह मस्जिद बनाई गई, वे मंदिर भी वेधशाला का ही हिस्सा थे।
आचार्य का दावा है कि मुस्लिम बुद्धिजीवी सर सैयद अहमद खां ने कुतुबमीनार पर खुदे अभिलेखों को सबसे पहले पढ़ा था। उनके अनुसार अरबी में लिखे ये अभिलेख बिना किसी योजना एवं बिना उद्देश्य के लिखे हुए हैं और इन अभिलेखों की भाषा व अक्षर रचना भी अशुद्ध है। इससे भी संकेत मिलता है कि स्तंभ पर अरबी भाषा में कुछ भी उलटा-सीधा लिख दिया गया, ताकि उसे सुल्तान द्वारा बनाया बताया जा सके।