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Board Results: अंकों को दौड़ में पिछड़ती प्रतिभा और ज्ञान, जानिए क्‍या कहते हैं शिक्षाविद

कंप्यूटर की अध्यापिका विनीती बग्गा पिछले 15 सालों से सीबीएसई के कक्षा 12वीं के छात्रों की कॉपियां जांचती आई हैं। उन्‍होंने कहा कि सभी बोर्ड अब छात्रों के अनुकूल हो गए है।

By Prateek KumarEdited By: Published: Tue, 14 Jul 2020 08:58 PM (IST)Updated: Wed, 15 Jul 2020 07:39 AM (IST)
Board Results: अंकों को दौड़ में पिछड़ती प्रतिभा और ज्ञान, जानिए क्‍या कहते हैं शिक्षाविद
Board Results: अंकों को दौड़ में पिछड़ती प्रतिभा और ज्ञान, जानिए क्‍या कहते हैं शिक्षाविद

नई दिल्ली [रीतिका मिश्रा]। केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के कक्षा 12वीं के परिणामों में इस बार जमकर अंको की बरसात हुई। कई छात्रों को इस बार पूर्णांक के बराबर प्राप्तांक मिले। कोरोनाकाल के चलती बदली मूल्यांकन प्रणाली के बाद अगर इस बार के आंकड़ों को देखे तो 13.24 फीसद यानि 1,57,934 छात्रों को 90 प्रतिशत से ज्यादा अंक मिले हैं, जबकि पिछले साल ये आंकड़ा 94,299 था। यानि इस बार 63,000 छात्र बढ़े हैं। वहीं, अगर ऐसे छात्रों की बात करे जिनके 95 प्रतिशत से ज्यादा है तो ये आंकड़ा पिछले साल के मुकाबले दोगुना हो गया है। पिछले साल 17,693 छात्रों के 95 प्रतिशत से ज्यादा अंक थे और इस साल 38,686 छात्रों के और यहीं आंकड़ा अगर उससे पहले के वर्षों का उठा कर देखे तो उससे भी कम रहे हैं।

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बढ़ रही लोगों की चिंता

साल-दर-साल बढ़ते प्राप्तांक हमें अभी अच्छें तो लग रहे हैं, लेकिन आने वाले समय में ये लोगों के चेहरों पर चिंता की लकीरें खींचेंगे। ये मानना है राजधानी दिल्ली के शिक्षाविदों और मूल्यांकनकर्ताओं और राजधानी के शिक्षकों का। इन सब के मुताबिक कहीं न कहीं मूल्यांकन में उदारता के चलते हम भारत की ज्ञान परंपरा से दूर हो रहे हैं। शिक्षाविदों का मानना है कि अब छात्र ‘अध्ययन, मनन, चिंतन, और उपयोग’ के चार महत्वपूर्ण सोपानों को भूलता ही जा रहा हैं। वो केवल अंकों की अंधी दौड़ में शामिल होना चाहता है। वो चाहता ही नहीं कि प्रश्न- प्रतिप्रश्न-परिप्रश्न’ की तिकड़ी को भी समझा जाए। वो केवल मष्तिष्क की प्रगति तक सीमित रहना चाहता हैं।

उच्च शिक्षा के लिए बोर्ड परिणामों में प्राप्त अंकों के केवल 50 फीसद को ही मिले महत्व- अशोक गांगुली

सीबीएसई के पूर्व चेयरमैन अशोक गांगुली के मुताबिक इस साल एक छात्रों और बोर्ड को एक असाधारण परिस्थिति से गुजरना पड़ा। कुछ विषय की परीक्षाएं भी नहीं हो पाई थी। ऐसे हालात में मूल्यांकन में जो सावधानी बरतनी चाहिए थी। संभव है वो नहीं बरती गई होगी। मूल्यांकन में उदारता दिखाई गई होगी और इसका एक मुख्य कारण कोरोना महामारी भी है। इसी के चलते इस बार 13.24 फीसद छात्रों को 90 प्रतिशत से ज्यादा अंक मिले।

हम मूल्‍यांकन की अंधी दौड़ में हो रहे शामिल

सामान्य परिस्थिति में ये आंकड़ा केवल चार से पांच फीसद के आस-पास होना चाहिए था। और इस बात में कोई दो राय नहीं है कि अब हम मूल्यांकन की अंधी दौड़ में शामिल होते जा रहे हैं। और ये दौड़ कहां जाकर समाप्त होगी इसका आंकलन लगा पाना अभी आसान नहीं होगा। अगर इसको रोकना है तो विश्वविद्यालयों को आज जरूरत है कि वो केवल कक्षा 12वीं के परिणाम के आधार पर दाखिला न दें, क्योंकि बोर्ड परीक्षा में प्राप्त .01 के अंतर से यह तय हो जाता है कि छात्र को शहर का टॉप कॉलेज मिलेगा या नहीं। इसलिए अगर विश्नविद्यालय छात्रों के दाखिले के दौरान कक्षा 10वीं व 12वीं में प्राप्त अंकों को केवल 50 फीसद ही महत्व दें और बाकि के 50 फीसद के लिए परीक्षा कराएं तो कहीं-न-कहीं बोर्ड परीक्षा परिणामों में बढ़ती उदारता रोकी जा सकती है। अन्यथा ये नहीं रुकने वाली।

साल दर साल बढ़ती नंबरों की बंदरबांट- नम्रता पॉल

हिंदी की अध्यापिका नम्रता पॉल पिछले 25 सालों से बोर्ड के छात्रों की कॉपियां जांचती आई हैं। उनके मुताबिक आसान होती मूल्यांकन व्यवस्था और साल दर साल बढ़ती नंबरों की बंदरबाट कहीं न कहीं छात्रों की शैक्षणिक प्रगति का सही आंकलन नहीं कर पा रही हैं। इस साल जिस तरह से छात्रों को बढ़कर प्राप्तांक मिले हैं उसके पीछे कोरोना महामारी के कारण हुई एवरेज मार्किंग जिम्मेदार तो है ही। उन्होंने कहा कि इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि हर विद्यालय अपने छात्र को आंतरिक परीक्षाओं में बढ़िया अंक देता हैं। ऐसे में नंबरों की उदारता के चलते छात्र कैसी प्रतिभा के साथ आगे बढ़ेंगे ये समाज के लिए एक प्रश्नचिन्ह है। उनके मुताबिक आसान चेकिंग, छोटी-छोटी गलतियों पर अंक ना काटना, वस्तुनिष्ट, छोटे उत्तर वाले प्रश्न, एक पैरा वाले उत्तरों में कोर शब्दों की उपस्थिति पर पूर्ण अंक देना भी प्राप्तांक बढ़ने के लिए जिम्मेदार हैं।

बोर्डों में एक प्रतिस्पर्धा बनी-

श्री वेंकटेश्वर इंटरनेशनल की प्रधानाचार्या नीता अरोड़ा के मुताबिक बदली मूल्यांकन प्रणाली के लिए केवल केंद्र ही नहीं बल्कि राज्य बोर्ड भी जिम्मेदार है। हर बोर्डों मे एक प्रतिस्पर्धा बनी हुई हैं। हर एक ने उदारता में दूसरे को पीछे छोड़ना ही सही माना है। हर साल राज्यों को चिंता होती है कि उनका परिणाम अन्य राज्यों और पूर्ववर्ती से अधिक हो। इसी के चलते छात्रों ने अब मेहनत करना छोड़ दिया है। आज जो छात्र 90-95 फीसद ला रहा है वो आइआइटी में सामान्यत 40-45 फीसद के आस-पास तक रह जाता है और बाद में लोकसेवा आयोग में 30-35 फीसद पर अटक कर रह जाता है तो लोग हैरानी भरों नजरो से देखते हैं। उनके मुताबिक बोर्ड परीक्षा के मूल्यांकन में दिखाई जा रही उदारता छात्रों में आगे चलकर हीनभावना पैदा करेगी और उसके आत्मविश्वास को डिगा देगी।

वन नेशन वन एजुकेशन की जरुरत

कंप्यूटर की अध्यापिका विनीती बग्गा पिछले 15 सालों से सीबीएसई के कक्षा 12वीं के छात्रों की कॉपियां जांचती आई हैं। कहा कि सभी बोर्ड अब छात्रों के अनुकूल हो गए है। अंको मेें इतनी उदारता पहले कभी नहीं देखने को मिली। अब हर बोर्ड चाहता है कि उनके बोर्ड का पढ़ा छात्र अच्छे कॉलेजों में दाखिला ले पाएं, इसलिए भी अंकों में उदारता देखने को मिलती हैं। अंको की दौड़ में अलग-अलग बोर्ड की उदारता की प्रतियोगिता को रोकना जरुरी है। और ये सिर्फ तभी संभव है जब वन नेशन वन एजुकेशन यानि एक देश एक बोर्ड हो। इसलिए हमें नए सिरे से विचार कर शिक्षा को नया कलेवर देना ही होगा, कोई अन्य विकल्प नहीं है।


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