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सैकड़ों बरस पुराने दिल्ली के इस रेलवे स्टेशन की धरोहर में सिमटा है इतिहास, पढ़ेंं रोचक स्‍टोरी

पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन की भव्य इमारत..इसमें लंबी लंबी मीनार दिख रही हैं। एक जामने में पानी की टंकी की तरह इनका प्रयोग होता था। आज गेरुए रंग से इस इमारत की सुंदरता और बढ़ गई है इसमें स्काटिश तत्वों की झलक भी दिखती है। संजय

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Sat, 06 Feb 2021 03:33 PM (IST)Updated: Sat, 06 Feb 2021 03:47 PM (IST)
सैकड़ों बरस पुराने दिल्ली के इस रेलवे स्टेशन की धरोहर में सिमटा है इतिहास, पढ़ेंं रोचक स्‍टोरी
रेलवे स्टेशन पर आधुनिक सुविधाएं भी हो गई हैं, लेकिन इमारत की बनावट सैंकड़ों वर्ष पुरानी ही है

नई दिल्‍ली, संतोष कुमार सिंह। अभूतपूर्व इतिहास की धनी दिल्ली। जिसकी रग-रग में रोचक घटनाक्रम बसे हैं। जो जितना इसके पन्नों को पलटा है उतना ही कुछ नया पाया है। और पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन तो बना भी शाहजहांनाबाद में। चटख गेरुआ रंग वाली पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन की इमारत वास्तुशिल्प के लिहाज से महत्वपूर्ण होने के साथ ही कई बदलाव व इतिहास की साक्षी रही है।

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1864 में एक छोटे से भवन से शुरू हुए इस रेलवे स्टेशन की गिनती आज देश के दस बड़े स्टेशन में होती है। यमुना पर लोहा पुल के बनने के बाद एक जनवरी, 1867 को इस स्टेशन पर ही तो पहली ट्रेन पहुंची थी। वही ट्रेन, ईस्ट इंडियन रेलवे द्वारा जिसकी शुरुआत कलकत्ता-दिल्ली लाइन पर की गई थी। इसी के साथ ही दिल्ली रेल मार्ग से देश के अन्य शहरों से जुड़ गई थी। इस छोटे से भवन से ही 40 वर्ष तक रेल संचालन का काम किया गया था। धीरे-धीरे जब इसके विस्तार की जरूरत महसूस होने लगी तब जाकर वर्ष 1893 में स्टेशन की नई इमारत बनाने का काम शुरू हुआ जिसे बनने लगभग दस वर्ष लगे।

दिल्ली का ऐतिहासिक लोहे का पुल.यह तस्वीर तो उस जमाने की बानगी कर रही है जब स्टीम इंजन वाली ट्रेन चला करती थीं। भाप इंजन वाली ट्रेन 1994 से बंद हो चुकी हैं। सौ: उत्तर रेलवे

मस्जिद और किले नुमा बनावट की नजीर

सन् 1903 की बात है जब महज दो प्लेटफार्म के साथ इस रेलवे स्टेशन को आम यात्रियों के लिए खोला गया था। ग्रीक रोमन, कौथिक, भारीतय-इस्लामिक वास्तुकला के अनुपम उदाहरण वाली इस इमारत को मुगलकाल के प्राचीन वास्तुशिल्प के आधार पर बनाया गया था। जिसे देखकर आप भी महसूस करते होंगे कि इसकी बनावट में कहीं न कहीं मस्जिद और किले जैसी झलक प्रतीत होती है। हालांकि तीन साल पहले तक स्टेशन की इमारत लाल रंग की थी, वर्ष 2016 में स्टेशन का नवीनीकरण हुआ तो भव्यता वैसी ही रही सिर्फ इमारत पर गेरुआ रंग चढ़ गया। दो प्लेटफार्म के साथ नई इमारत को वर्ष 1903 में आम यात्रियों के लिए खोला गया था।

मिल चुका है नगरीय धरोहर पुरस्कार

स्टेशन की इमारत में अलग-अलग छह मीनार भी दिखती हैं, यह मीनार रेलवे स्टेशन पर पानी आपूर्ति के लिए बहुत काम आती थीं, जिस तरह आज पानी की आपूर्ति के लिए बड़ी-बड़ी टंकियां बनी होती हैं, उसी तरह उस दौर में रेलवे स्टेशन पर इन मीनारों में जल संचयन होता था। वर्ष 1993 में दिल्ली विकास प्राधिकरण द्वारा इस भवन को नगरीय धरोहर पुरस्कार प्रदान किया गया था। इतना ही नहीं यह इमारत पर्यावरण संरक्षण की भी मिसाल है तभी इसे दो वर्ष पहले आएसओ यानी अंततराष्ट्रीय मानकीकरण संगठन का प्रमाण पत्र भी हासिल कर चुकी है। इस प्रमाण पत्र की उपलब्धि पाने वाल उत्तर रेलवे का यह इकलौता रेलवे स्टेशन है।

निर्माण की कहानी भी दिलचस्प है

इतनी भव्य इमारत बनने के पीछे की कहानी भी बड़ी दिलचस्प और संघर्ष भरी रही। दरअसल वर्ष 1854 में ईस्ट इंडिया रेलवे कंपनी के जनक रोनाल्ड मैक डोनाल्ड स्टीफंस ने कलकत्ता (अब कोलकाता) से इलाहाबाद (अब प्रयागराज) और दिल्ली होते हुए लाहौर तक रेल लाइन बिछाने की परिकल्पना की थी। बाद में इसमें बदलाव करते हुए दिल्ली के बजाय मेरठ के रास्ते रेलवे लाइन बिछाने का प्रस्ताव आया जिसका दिल्ली के व्यवसायियों व अन्य नागरिकों ने विरोध किया।

वर्ष 1863 में गठित एक समिति में शामिल नारायण दास नागरवाला सहित अन्य सदस्यों ने अंग्रेजी हुकूमत से दिल्ली को रेलवे लाइन से वंचित नहीं करने की अपील की। उनका तर्क था कि सरकार के फैसले से दिल्ली का व्यापार प्रभावित होगा। इसके साथ ही रेलवे कंपनी में धन निवेश करने वाले यहां के व्यापारियों के साथ भी नाइंसाफी होगी। दिल्ली वालों की नाराजगी काम आई। अंतत: ईस्ट इंडिया कंपनी के बोर्ड आफ कंट्रोल के अध्यक्ष चाल्र्स वुड ने दिल्ली के रास्ते ट्रेन चलाने का फैसला किया, और इसके साथ ही पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन का अस्तित्व भी सामने आ सका। आज वर्तमान में जहां पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन है, वहां उस समय बड़ी आबादी रहती थी। जिसे पहाड़गंज, सदर बाजार, करोल बाग स्थानांतरित किया गया था। इतिहासकार सोहेल हाशमी के मुताबिक रेलवे लाइन पुराने शहर को दो हिस्सों में करते हुए गुजरी। जिसके उत्तर की तरफ अंग्रेजों के, रेजिडेंट के आवास और चर्च थे। वहीं दक्षिण की तरफ दिल्ली वालों की रिहायश थी।

अंग्रेजों की खीज में तय हुई स्टेशन के लिए जगह

रेलवे स्टेशन को कहां बनाया जाए उस स्थान को लेकर अंग्रेजों ने बड़े योजनाबद्ध तरीके से काम किया। 1857 में स्वतंत्रता की पहली लड़ाई के विफल होने के बाद अंग्रेजों ने एक रणनीति के तहत दिल्ली में रेलवे स्टेशन के लिए इस स्थान का चुनाव किया था। शाहजहांनाबाद में क्रांतिकारी भावनाओं का जोर ज्यादा था। वैसे भी अंग्रेजों की जिद थी कि रेलवे लाइन लाल किले से होकर ही गुजरेगी। इसके लिए लाल किले का कोना तक भी तोड़ना पड़ा था। कोना ना टूटे इसके लिए दिल्ली के लोगों ने पत्र लिखा लेकिन अंग्रेज जिद पर अड़े थे। दरअसल अंग्रेजी सेना को शाहजहांनाबाद में स्थानांतरित कर दिया गया था। भविष्य में ¨हसक आंदोलन होने पर उसे आसानी से काबू किया जा सके इसे ध्यान में रखकर रेलवे स्टेशन को शहर के बाहर ले जाने के बजाय आबादी वाले स्थान पर बनाने का फैसला किया गया था। पहले गाजियाबाद के नजदीक स्टेशन बनाने का प्रस्ताव था, लेकिन बाद में इसे सीलमगढ़ और लाल किले के नजदीक बनाने का फैसला किया गया।

दिल्ली बनी राजधानी तो हुआ विस्तार

अंग्रेज ठेकेदार बैंजामिन फ्लैचर द्वारा बनाई गई रेलवे स्टेशन की इस इमारत का वर्ष 1931 में दिल्ली के राजधानी बनने के बाद महत्व और बढ़ गया था, इसलिए वर्ष 1934-35 में रेलवे स्टेशन परिसर को और विस्तार दिया गया। प्लेटफार्म की संख्या बढ़ाई गई और बिजली के सिग्नल लगाए गए। स्वतंत्रता के बाद औद्योगिक एवं अर्थव्यवस्था की उन्नति के साथ ही यात्री सुविधाओं को भी महत्व दिया गया। इसी तरह 1952 में उत्तर रेलवे बनने के बाद दिल्ली जंक्शन इसका अंग बन गया। वर्ष 1959 में इस स्टेशन के यार्ड का नवीनीकरण किया गया, जिससे यार्ड की क्षमता कई गुना बढ़ गई। धुलाई लाइन, प्लेटफार्म शेड, पार्सल शेड का विस्तार वर्ष 1985-88 के बीच किया गया। यहां पर जोरावर मार्ग की तरफ कभी स्टीम लोको शेड भी होता था। लेकिन 15 मई 1994 को जब उत्तर रेलवे में भाप इंजन बंद हुए तो इसी के साथ लोको शेड भी इतिहास की किताबों में सिमट गया। ये लोको शेड उसी जगह पर था जहां आज स्टेशन का दूसरा प्रवेश द्वार है। आज इसकी क्षमता देखते ही देखते लाखों यात्रियों की हो गई है। लगभग एक हजार यात्रियों के लिए बनाए गए इस स्टेशन पर कोरोना काल के पहले तीन लाख के करीब यात्री पहुंच रहे थे। और 19 प्लेटफार्म के विस्तार के साथ तकरीबन 250 ट्रेनों का यहां से रोजाना संचालन होता है। इतना ही नहीं आधुनिकता के साथ भी स्टेशन पूरी कदमताल करता नजर आता है।

बापू पहली बार पुरानी दिल्ली पहुंचे थे

अब जरा इस स्टेशन से जुड़े रोचक किस्सों को भी जानते हैं। सैंकड़ों वर्ष पुराने इस स्टेशन से स्वतंत्रता आंदोलन के किस्से जुड़ना स्वाभाविक है। वैसे भी दिल्ली स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्र भी रही थी। उस दौर में देश के विभिन्न हिस्सों से स्वतंत्रता सेनानी रेल से यहां पहुंचते थे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी पहली बार दिल्ली रेल मार्ग से यहां पहुंचे थे। इतिहासकार बताते हैं कि 12 अप्रैल 1915 को शाम में वह पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पहुंचे थे। सेंट स्टीफंस कालेज के प्रिंसिपल सुशील कुमार रुद्र कुछ छात्रों के साथ स्टेशन पर उनकी आगवानी में पहुंचे थे। उन दिनों संत स्टीफंस कालेज भी स्टेशन के नजदीक कश्मीरी गेट पर स्थित था। कालेज की इमारत आज भी मौजूद है, वहां कई सरकारी दफ्तरों का संचालन किया जा हरा है। स्टेशन के बाहर से ही गांधी जी को तांगे पर लेकर जाया गया था। आज रेलवे स्टेशन के बाहर जिस तरह टैक्सी लगी दिखती हैं तब तांगों की कतार स्टेशन के बाहर लगी रहती थी।

बनावट में दिखते हैं स्काटिश तत्व

पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के वास्तु पर वास्तुकार आशीष गंजू कहते हैं कि पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन का डिजाइन आखों को सुकून देता है, इसकी बनावट में स्काटिश तत्व दिखते हैं। मसलन, स्काटिश इमारतों में जिस तरह के टैरेस, मीनार होते हैं, कुछ वैसे ही पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन में भी हैं। इसकी एक और खासियत है कि ईंटों के ऊपर प्लास्टर नहीं है। यूरोप में इस तरह का प्रचलन है। वहां ईंटों पर प्लास्टर नहीं चढ़ाते, जबकि भारत में पत्थर या रंगरोगन का प्रचलन है। कुछ इसी तरह के बनावट की इमारतें चंडीगढ़ में भी दिखती हैं।

तृतीय दिल्ली दरबार में पहुंची थीं 140 ट्रेनें

उत्तर रेलवे धरोहर समिति के दस्तावेजों में छोटे से भवन के रूप में जब रेलवे स्टेशन था तो उन दिनों यह भवन दिल्ली दरबार, स्वतंत्रता आंदोलन व विभिन्न सांस्कृतिक व राजनीतिक घटनाओं का भी साक्षी रहा। वर्ष 1911 में तृतीय दिल्ली दरबार के अवसर पर यहां 140 ट्रेनें पहुंची थीं जो एक कृतिमान है।


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