किसान आंदोलन के 10 माह: किसानों की हठधार्मिता देश के कई वर्गों पर पड़ रही भारी, पढ़िए क्या कहता संविधान?
किसान संगठनों और उनके वकीलों ने हरियाणा मानव अधिकार आयोग में शिकायत भी दर्ज करवाई हुई हैं। इसके इतर कई अन्य सामाजिक व्यापारिक संगठन ऐसे मार्ग अवरुद्ध करने वाले आंदोलनरत संगठनों के खिलाफ मानव अधिकार आयोग व सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा चुके हैं।
नई दिल्ली [बिजेंद्र बंसल]। किसान संगठनों ने आंदोलन के नाम पर 10 माह से दिल्ली से सटी हरियाणा, उप्र व कुछ जगह राजस्थान की मुख्य सड़कों को अवरुद्ध किया हुआ है। हरियाणा के कुंडली बार्डर और उत्तर प्रदेश के गाजीपुर बार्डर पर किसानों का लगातार धरना चल रहा है। तीन कृषि सुधार कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन का समर्थन करने वाले किसान संगठन इसे किसानों का मूलभूत मानव अधिकार मानते हैं। इसको लेकर किसान संगठनों और उनके वकीलों ने हरियाणा मानव अधिकार आयोग में शिकायत भी दर्ज करवाई हुई हैं। इसके इतर कई अन्य सामाजिक, व्यापारिक संगठन ऐसे मार्ग अवरुद्ध करने वाले आंदोलनरत संगठनों के खिलाफ मानव अधिकार आयोग व सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा चुके हैं।
धरना-प्रदर्शन करना अपनी मांग रखना किसी नियम या कानून का पक्ष लेना या विरोध करना एक व्यक्ति का अधिकार हो सकता है। इसमें कोई शंका नहीं, परंतु कानूनन विरोध चाहे किसी विषय का भी हो और चाहे किसी के द्वारा भी हो, अन्य लोगों की परेशानी का कारण बन जाए तो उसे कोई भी कानून या मौलिक अधिकार की दृष्टि में विरोध का सही ढंग नहीं मान सकता। भारत के संविधान में भी मौलिक अधिकारों की छूट पर अंकुश लगाने का प्रविधान है। किसी के अधिकार पर तब अंकुश लगाया जा सकता है, जब वह दूसरे के अधिकारों पर अतिक्रमण करता हो।
ऐसी ही कुछ स्थिति इस कृषि कानून विरोधी प्रदर्शन में बन चुकी है। दिल्ली के समीप जिस क्षेत्र में किसान लंबे समय से धरना दिए बैठे हैं, उसमें उद्योग, वाणिज्य तथा आसपास के लोगों की दिनचर्या बुरी तरह से प्रभावित है। आकलन तो यहां तक किया जा रहा है कि इससे कई हजार करोड़ रुपये प्रतिदिन राजस्व नुकसान प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप में हो रहा है। यह नुकसान सिर्फ सरकार का नहीं है। यह नुकसान एक छोटे व्यापारी, एक लघु उद्योग चलाने वाले उद्यमी का तो है ही, साथ ही मुश्किल से दो जून की रोटी कमाने वाले कामगार का भी है जो कि बुरी तरह प्रभावित हैं। उन्हें आज रोजगार कमाने में कठिनाई हो रही है। इस आंदोलन के चलते बहुत से उद्योग, व्यापारिक संस्थान, दुकाने लगभग एक साल से पूरी तरह ठप हैं। बहुत संख्या में लोग यहां से पलायन करके अपने गांव की तरफ चले गए हैं। क्या उन सब लोगों का कोई मानव अधिकार नहीं है?
विरोध का यह ढंग किसानों के मानव अधिकारों का बचाव करता है या समाज के अन्य कई वर्गो के मानव अधिकारों का हनन कर रहा है। यह एक अपने आप में गंभीर विषय है। भारत में जिस प्रकार के आंदोलन करके व्यवस्था को जाम करने की प्रथा बन रही है, वह किसी प्रकार से भी देश के कानूनी ढांचे, अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक ढांचे के लिए उचित नहीं है। जब इस प्रकार से अपने हितों की रक्षा के लिए कोई वर्ग अन्य वर्गो के हितों का हनन करने लग जाता है तो समाज में टकराव का खतरा बढ़ जाता है। आज कुछ ऐसा ही माहौल बन रहा है।
किसान नाम से जुड़े कुछ लोग कह रहे हैं कि वे कानून नहीं मानते। जैसे वे लोकतंत्र का हिस्सा नहीं हों और स्वयं किसी कबीला के कानून चलाने वाले लोग हों। भारत का संविधान जहां अभिव्यक्ति की आजादी देता है वहीं उस आजादी पर एक हद के बाद अंकुश भी लगाता है। विभिन्न न्यायालय और न्यायाधीश समय-समय पर अभिव्यक्ति की आजादी पर आवश्यक अंकुश लगाने का मत रख चुके हैं।
भारतीय संविधान के अनुसार अभिव्यक्ति की आजादी असीमित नहीं हो सकती। जब भी अभिव्यक्ति के नाम पर कोई ऐसा कार्य किया जाए जो दूसरे के हितों को नुकसान दे तो वह गैर संवैधानिक माना जाएगा। वह अपराध भी हो सकता है। ऐसे में सरकार को कोई ना कोई कदम उठाना ही पड़ता है। पिछले दिनों किसानों और पुलिस के बीच में जो झड़प हुई वह कुछ इसी का नतीजा था। 26 जनवरी 2021 गणतंत्र दिवस पर हुई घटना पूरे देश ने देखी थी। जिन लोगों पर हमला हुआ, क्या उनके कोई मौलिक अधिकार नहीं थे।
इसमें कोई शक की बात नहीं किसान को भारत की अर्थव्यवस्था का एक मजबूत स्तंभ या पहिया माना जाता है और सवा सौ करोड़ की जनसंख्या का पेट भरने का दायित्व किसान ही उठाता है। लेकिन यदि गहराई से सोचा जाए तो यह भी एक सत्य है कि किसी भी देश की गाड़ी मात्र एक पहिये पर नहीं चल सकती पूरी व्यवस्था को चलाने के लिए अनेक अन्य पहियों की जरूरत पड़ती है। किसानों को यह बात सोचनी चाहिए उनकी हठधíमता देश के कई वर्गो के ऊपर भारी पड़ रही है।
(संदीप शर्मा, मानवाधिकार कार्यकर्ता, अधिवक्ता, पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय, चंडीगढ़)