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आखिर क्या खाकी निहंगों के आगे पड़ गई कमजोर या है कोई राजनीतिक दबाव

Kundli Border Murder Case दिल्ली की सीमाओं पर पिछले करीब 10 माह से जारी कृषि कानून विरोधी आंदोलन अराजक दौर में पहुंच चुका है लेकिन इसके आयोजक इस बात को समझने के लिए तैयार नहीं हैं। इसके बावजूद पुलिस खामोश रही है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Fri, 22 Oct 2021 09:28 AM (IST)Updated: Fri, 22 Oct 2021 05:36 PM (IST)
आखिर क्या खाकी निहंगों के आगे पड़ गई कमजोर या है कोई राजनीतिक दबाव
दिल्ली की सीमा पर कृषि कानून विरोधी धरना स्थल पर एक निहंग को समझाता पुलिसकर्मी। फाइल

मनु त्यागी। इससे अधिक निर्ममता क्या हो सकती है कि कुछ निहंग पहले एक युवक के हाथ-पैर काटते हैं, फिर उसे बैरिकेड से बांध देते हैं। विडंबना यह भी कि मृतक का शरीर हटाने के लिए निहंगों के आगे पुलिसकर्मियों को मिन्नतें करनी पड़ीं। इन निहंगों ने पुलिस को चेतावनी दी कि धरना स्थल पर उनके क्षेत्र में तैयारी के साथ आएं। यदि फिर धार्मिक ग्रंथ से बेअदबी हुई तो ऐसा ही होगा।

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यदि इसे तालिबानी रवैया कहा जाए तो गलत नहीं होगा। जिस धार्मिक ग्रंथ के साथ बेअदबी की बात निहंग कर रहे हैं वह तो मानवीयता की मिसाल है। किसी भी धार्मिक ग्रंथ में ऐसी कटुता की बात नहीं की जाती। धर्म तो मानवीयता का संरक्षक है। निश्चित रूप से निहंगों का इतिहास गौरवान्वित रहा है। वैरागी और तपस्वी जीवन रहा है। गुरु ग्रंथ और धर्म की रक्षा को तमाम लड़ाइयां लड़ी हैं। मानवता की रक्षा तो इनका शिष्टाचार रहा, तो फिर ऐसी बर्बरता? अब तो सिख समुदाय इस क्रूर कृत्य की आलोचना कर रहा है, इसे धर्म रक्षा नहीं, धर्म को कलंकित करने जैसी बात कही जा रही है। सिख समुदाय के धर्म गुरुओं के ऐसे कई वीडियो आ रहे हैं जिन्होंने इस घटना की न केवल निंदा की है, बल्कि अपने धर्म के संरक्षण के प्रति चिंता भी व्यक्त की है। पटियाला के धर्म गुरु रणजीत सिंह ने अपने सत्संगों में भी इस बात पर दुख व्यक्त किया है। क्या वाकई किसी धर्म के ग्रंथ की बेअदबी होने से वह कमजोर पड़ जाता है। यह तो मानवीय शिष्टाचार है कि हर धर्म माथे पर लगी देश की माटी है। हमारा मान है। लेकिन ऐसे घटनाक्रम यह सोचने पर विवश करते हैं कि धर्म की व्याख्या किस तरह की जानी चाहिए?

यह पहला अवसर नहीं है जब कृषि कानून विरोधी धरना स्थलों पर बैठे आंदोलनकारियों की करतूतों से एक खास किसान वर्ग को वैश्विक पटल पर शर्मिदा होना पड़ा है। धरना स्थलों पर समय-समय पर ऐसी घटनाएं हुईं हैं जिन्होंने पूरे देश को कलंकित किया। 26 जनवरी को लाल किले की घटना को भी भुलाया नहीं जा सकता। सामूहिक दुष्कर्म, हिंसा, राहगीरों के साथ मारपीट, पुलिस पर तलवार से हमला ऐसी घटनाएं इस प्रदर्शन का चेहरा बन गई हैं। इन प्रदर्शनकारियों में खालिस्तानियों की संलिप्तता किसी से छिपी नहीं है। कोई भी आंदोलन अपनी पवित्रता और सत्यता से ही संचालित होता है। यह दुर्भाग्य ही रहा कि इसमें अराजकता हावी हो गई। इस कथित आंदोलन की आरंभ से ही ऐसे हाथों में परवरिश हुई कि कृषि कानून में सुधार और बदलाव की मूल मांग तो धूमिल ही हो गई। ऐसा नहीं होता तो केंद्र सरकार के साथ 11 दौर की वार्ताएं विफल नहीं होतीं। वार्ता से समाधान की उम्मीद जगती है, लेकिन किसानों की आड़ लेकर बैठे लोगों ने इस पूरे मामले का राजनीतिकरण कर दिया। इसमें किसान कम, राजनीतिक तत्व ज्यादा हैं। दिल्ली की सीमाओं पर घेरे गए रास्तों को देख लें, तो एक भी किसान वहां नहीं मिलेगा। वह तो खेतों में देश के लिए अन्न उपजा रहा है। फसल तैयार कर रहा है।

हालांकि इस निर्मम कृत्य के बाद एक बार फिर आपसी फूट के स्वर सुनाई पड़ने लगे हैं। निहंग अड़े हैं। किसान संयुक्त मोर्चा पहले की तरह इस बार भी इस घटनाक्रम से बचाव करते हुए अपना दामन पाक साफ रखना चाहता है। यही बात निहंगों को अखर रही है। उनका दावा है कि मोर्चा सिंघु और कुंडली बार्डर पर हमारे बूते ही टिका है। निहंगों को मलाल है कि यदि मोर्चा उनके साथ खड़ा होता तो लखबीर के साथ जो उन्होंने किया उसके लिए उन पर कार्रवाई नहीं होती। लेकिन पहले की तरह मोर्चा इस बार भी पीछे हट गया। निहंगों में इसी बात का आक्रोश है। विरोध के स्वर तो अब इस कथित आंदोलन का समर्थन करने वाली खापों की ओर से भी उठने लगे हैं।

अब इनकी विश्वसनीयता पर भी सवाल होगा, आखिर कब तक और कितनी बार उनके गलत कर्मो से पल्ला छुड़ाते रहेंगे, क्योंकि मोर्चा और गठवाला खाप ने विरोध तो उस दिन भी किया था जब 26 जनवरी को लाल किले पर एक खास झंडा फहरा दिया गया। लाल किला परिसर पर उपद्रव मचाया गया था, पुलिस वालों के साथ बर्बरता की गई थी। इन्होंने विरोध तो तब भी किया था जब एक निहंग ने टिकरी बार्डर पर एक पुलिसकर्मी का अंगूठा काट दिया था। पल्ला तो किसान मोर्चा ने उस दिन भी झाड़ लिया जब बंगाल से आई युवती के साथ सामूहिक दुष्कर्म के आरोप में किसान सोशल आर्मी के चार नेताओं के खिलाफ केस दर्ज किया गया। पंजाब के आंदोलनकारियों में शराब के पैसों को लेकर झगड़ा हुआ। उसमें एक आंदोलनकारी गुरप्रीत की पंजाब के किसानों ने पीटकर हत्या कर दी थी।

ऐसा बार-बार हुआ जब किसान संयुक्त मोर्चा हर गलती से अपना पल्ला झाड़ता रहा है। देखने वाली स्थिति तो पुलिस की भी है जो हर बार धरना स्थल पर हुई घटना से दबाव में ही नजर आई है। 26 जनवरी को भी पुलिस खामोशी से डंडे खाती रही। सैकड़ों पुलिस वाले चोटिल हुए थे। अब एक दलित की हत्या में भी निहंगों ने पुलिस को आसपास नहीं फटकने की चेतावनी दे दी। इससे पहले भी जब पुलिस किसी घटना की जांच करने को धरना स्थलों पर पहुंची है तो उसे दुत्कार ही ङोलनी पड़ी है या खाली हाथ ही लौटना पड़ा है। इसके बावजूद पुलिस खामोश रही है। आखिर क्या खाकी इनके आगे कमजोर पड़ गई है या वह भी किसी राजनीतिक दबाव में है?


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