थियेटर का हबीब
संजीव कुमार मिश्रा नई दिल्ली रंगमंच की दुनिया का ऐसा अभिनव प्रयोग जिसकी कल्पना करना भी उ
संजीव कुमार मिश्रा, नई दिल्ली
रंगमंच की दुनिया का ऐसा अभिनव प्रयोग जिसकी कल्पना करना भी उन दिनों बेमानी था। गांव को रंगमंच बनाना और ग्रामवासियों को कलाकार। यह क्रांतिकारी सोच भी हबीब तनवीर जैसे निर्देशकों की ही हो सकती थी। ओखला गाव में 1954 में मंचित आगरा बाजार नाटक भारतीय रंगमंच के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ। इसके अब तक एक हजार से ज्यादा शो हो चुके हैं। जितना दमदार इसका कथानक है, उतनी ही दिलचस्प रंगमंच के पर्दे के पीछे की कहानी।
नाटक आगरा बाजार से सन् 1969 से जुड़े अभिनेता पुरुषोत्तम भट्ट कहते हैं कि जामिया मिल्लिया विश्वविद्यालय उन दिनों नजीर अकबराबादी के ऊपर एक प्रोगाम करने की सोच रहा था। हबीब उन दिनों नए थियेटरकर्मी के रूप में रंगमंच के गलियारे में काफी चर्चित थे। जामिया पदाधिकारियों ने हबीब तनवीर से मुलाकात की और नजीर की पाडुलिपिया उन्हें सौंपी। हबीब की एक खासियत थी कि वो नाटक बनाने के पहले पूरी रिसर्च करते थे। नजीर पर नाटक बनाने से पहले वो फतेहपुर सीकरी गए। वहा नजीर की एक रिश्तेदार से मुलाकात हुई, जिन्होंने नजीर के बारे में काफी दस्तावेज दिए। नजीर ओखला आए और स्क्रिप्ट तैयार करनी शुरू की। उन्होंने रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े पात्रों को ही नाटकों के केंद्र बिंदु में रखा और इस तरह 50 मिनट का नाटक तैयार हुआ।
-और पूरा गांव ही बन गया नाटक का किरदार :
हबीब तनवीर ने आगरा बाजार किताब में लिखा है कि सन् 1954 में आगरा बाजार तैयार करते समय मेरे पास न ऐसे एक्टर थे, न वैसे। जामिया के अध्यापक थे और छात्र। बस एक शौक था जिससे सब घिरे थे। लेकिन जब स्क्रिप्ट लिखी जाने लगी तो एक एक कर पात्र सामने आते गए। जब पहली बार यह ड्रामा पेश किया गया तो प्लॉट एक ककड़ी वाले पर केंद्रित था। जो अपनी ककड़ी बेच नहीं पाता और जब नजीर उसकी ककड़ियों पर एक नज्म लिख देते हैं तो वो उस नज्म को गा-गाकर ककड़िया बेचने लगता है। इस तरह ककड़िया बिकने लगती हैं। जामिया के पहले शो में फकीर दो भाई अशफाक मुहम्मद खा और इश्तियाक मुहम्मद खा बने थे। मदारी का किरदार जामिया के ही मुहर्रम अली ने निभाया था। ककड़ी वाला वास्तव में जामिया में ककड़ी बेचता था। इसी तरह लड्डू वाला, तरबूज बेचने वाले पात्र भी असल जिंदगी में यही काम करते थे। स्कि्त्रप्ट लिखते समय हबीब के दिमाग में आया कि बाजार में सिर्फ आदमी ही नहीं दिखते हैं पशु भी हेाते हैं। कुत्ते, घोड़े, गधे, बकरी आदि। इस तरह नाटक में एक वास्तविक बकरी वाले को भी रोल दिया गया। हालांकि बाद के वषरें में नाटक की पटकथा में काफी बदलाव किया गया। नाटक में किताबवाले का किरदार एक जामिया निवासी फिजिक्स के अध्यापक ने निभाया था। जिनका नाम था मुहम्मद यूसुफ। कहने को तो फिजिक्स के टीचर थे लेकिन लिखते बेमिसाल थे। इसी तरह दारोगा का किरदार उस समय के तत्कालीन ओखला एसएचओ ने निभाया। नाटक में इनका प्रवेश भी घोड़े पर बैठकर होता है। चूंकि उस समय दारोगा घोड़े पर ही चलते थे। पहले पहल नाटक का मंचन जामिया एवं फिर रामलीला मैदान में हुआ। पुरुषोत्तम भट्ट कहते हैं कि जब मैं 11 साल का था तब पहली बार नाटक में रीछ का रोल किया था एवं अब फकीर का रोल करता हूं। नाटक हर दस साल में खुद को नई परिस्थितियों के अनुरूप ढालता है, कथानक बदलता है। पहली बार सन् 1954 में जब नाटक का मंचन हुआ तो कुल 75 कलाकारों ने हिस्सा लिया था।
-बॉक्स :-
बेरसराय में रहते थे सारे कलाकार :
आजकल नया थिएटर जिसके अंतर्गत आगरा बाजार होता रहा है जो हबीब तनवीर साहब की नाटक मंडली का नाम है। आज भी 22 देहाती कलाकार जुड़े हुए हैं। सभी अलग-अलग रहते हैं लेकिन उन दिनों सब बेरसराय में रहते थे। अब नया थिएटर को संगीत नाट्य अकादमी सम्मानित रामचंद्र सिंह संभाल रहे हैं। लगातार हबीब के नाटक पूरे देश में करते आ रहे हैं। आज भी इन देहात के कलाकारों के रहने का खर्चा नया थिएटर ही वहन करता है।