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सतत प्रक्रिया है मूल्यांकन: गोपेश्वर सिंह

वाणी प्रकाशन के डिजिटल मंच पर हिदी साहित्य का इतिहास अध्ययन की नई दृष्टि श्रृंखला में छायावाद पुनर्मूल्यांकन विषय पर ऑनलाइन व्याख्यान का आयोजन हुआ।

By JagranEdited By: Published: Tue, 16 Jun 2020 07:53 PM (IST)Updated: Tue, 16 Jun 2020 07:53 PM (IST)
सतत प्रक्रिया है मूल्यांकन: गोपेश्वर सिंह
सतत प्रक्रिया है मूल्यांकन: गोपेश्वर सिंह

जागरण संवाददाता, नई दिल्ली:

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वाणी प्रकाशन के डिजिटल मंच पर 'हिदी साहित्य का इतिहास अध्ययन की नई दृष्टि' श्रृंखला में 'छायावाद पुनर्मूल्यांकन' विषय पर ऑनलाइन व्याख्यान का आयोजन हुआ। मुख्य वक्ता के रूप में बोलते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय के हिदी विभाग के प्रो. गोपेश्वर सिंह ने कहा कि जब हम हिदी साहित्य के पुनर्मूल्यांकन की बात करते हैं तो उस सिलसिले में रामचंद्र शुक्ल, रामविलाम शर्मा, डॉ. नगेंद्र, नामवर सिंह, मुक्तिबोध इन सभी ने छायावाद को नई दृष्टि से देखने की कोशिश की है। मुक्तिबोध के बाद भी रमेश चंद्र सहाय, नंद किशोर नवल बहुत से नाम हैं, जिन्होंने पुनर्मूल्यांकन का काम किया। मूल्यांकन एक सतत प्रक्रिया है जो हमें बताती है कि छायावाद कितना प्रतापी काव्य आंदोलन था। आधुनिक हिदी कविता के इतिहास में हम देखते हैं कि यह काव्य आंदोलन इतना प्रतापी था कि छायावाद के जन्मकाल से लेकर अब तक इस पर बहस हो रही है और नई-नई व्याख्या आ रही है। गोपेश्वर सिंह ने कहा कि जिस छायावाद का जन्म ही विरोध के साथ हुआ था उस छायावाद को जनता ने सिर-माथे पर बिठाया। यह उसकी लोकप्रियता और छायावादी कवियों के जनता के बीच आदर का प्रमाण है। निराला तो लीजेंड की तरह गिने जाते थे और पंत की तुलना अंग्रेजी के रोमांटिक कवियों से होती थी। छायावाद पर सबसे पहला आरोप यह लगा था कि जब देश में स्वतंत्रता संग्राम चल रहा था, तब हिदी के बहुत कवि स्वतंत्रता संग्राम में शामिल थे। जिनमें माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा आदि थे लेकिन छायावादी कवि उस स्वतंत्रता आंदोलन से दूर थे। यानि एक तरह से आंदोलन से अलग रहने को ही इनकी आलोचना का आधार बनाया गया। इसका जवाब नलिन विलोचन शर्मा ने दिया जो छायावाद को स्थापित करने वाले और निराला को मान्यता दिलाने वालों में थे। उन्होंने लिखा कि यदि साहित्य की प्रेरणा भूमि सामाजिक क्रांति है तो छायावाद किस सामाजिक क्रांति से अनुप्राणित हुआ था। वह छायावाद जिसमें मानवीय व प्राकृति सौंदर्य, स्वप्न और कल्पना के मधुर गीत गाए हैं, यह कहना छायावादियों के प्रति अन्याय होगा कि वह बीन बजा रहे थे जब भारत विदेशी शासन की आग में जल रहा था। छायावादी अवश्य ही साहित्यिक चारवाक नहीं थे।' इस गंभीर व्याख्यान से सैकड़ों श्रोता जुड़े।


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