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विज्ञान से ही लग सकता प्रदूषण पर विराम : प्रो. त्रिपाठी

आइआइटी कानपुर के सिविल इंजीनियरिग के विभागाध्यक्ष प्रो. एस एन त्रिपाठी का कहना है कि वायु प्रदूषण एक बड़ी जन स्वास्थ्य समस्या का कारण है। इसे नियंत्रित करने वाली नीतियों का आधार प्रशासनिक नहीं बल्कि वैज्ञानिक होना चाहिए। इस संबंध में उन्होंने पांच शोध पत्र भी प्रकाशित किए हैं।

By JagranEdited By: Published: Sat, 25 Jul 2020 12:50 AM (IST)Updated: Sat, 25 Jul 2020 06:12 AM (IST)
विज्ञान से ही लग सकता प्रदूषण पर विराम : प्रो. त्रिपाठी
विज्ञान से ही लग सकता प्रदूषण पर विराम : प्रो. त्रिपाठी

राज्य ब्यूरो, नई दिल्ली : आइआइटी कानपुर के सिविल इंजीनियरिग के विभागाध्यक्ष प्रो. एस एन त्रिपाठी का कहना है कि वायु प्रदूषण एक बड़ी जन स्वास्थ्य समस्या का कारण है। इसे नियंत्रित करने वाली नीतियों का आधार प्रशासनिक नहीं, बल्कि वैज्ञानिक होना चाहिए। इस संबंध में उन्होंने पांच शोध पत्र भी प्रकाशित किए हैं।

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प्रो. त्रिपाठी क्लाइमेट ट्रेंड्स द्वारा शुक्रवार को 'भारत में वायु गुणवत्ता सुनिश्चित करने वाली नीति निर्धारण में विज्ञान की भूमिका' विषय पर आयोजित वेबिनार में बोल रहे थे। इस कार्यक्रम में लंग केयर फाउंडेशन के डॉ अरविंद कुमार, महाराष्ट्र प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड के संयुक्त निदेशक (वायु) डॉ वीएम मोठ्घरे व इंडिया क्लाइमेट कोलैब्रेटिव की श्लोका नाथ भी शामिल रहीं। सभी ने वायु गुणवत्ता नीति निर्धारण को विज्ञान के चश्मे से देखने की जरूरत और अहमियत को सामने रखा।

प्रो. त्रिपाठी ने बताया कि पहला शोध पत्र पीएम 2.5 के ऑक्सीडेटिव पोटेंशियल और उससे सेहत पर पड़ने वाले असर के बारे में है। ऑक्सीडेटिव पोटेंशियल किसी प्रदूषक कण की वह ताकत है, जिसकी मदद से वह शरीर में जाकर जरूरी एंटी ऑक्सीडेंट को बर्बाद कर देता है। इसलिए पीएम 2.5 की कुल मात्रा का जिक्र और फिक्र ही नहीं उसकी केमिकल कंपोजीशन को भी समझने की जरूरत है।

दूसरे और तीसरे शोध पत्र में दिल्ली की हवा में पाई जाने वाली टॉक्सिक गैसों के स्त्रोत को पहचानने की बात की गई है। जबकि चौथे शोध पत्र में यह पता चला कि पीएम कणों में सबसे ज्यादा मात्रा में क्लोरीन और सिलिकॉन थे और ये सभी कण दिल्ली के बाहर से तीन वायु मार्गो से पहुंचे थे। क्लोरीन, ब्रोमीन और सेलेनियम पंजाब और हरियाणा से आए जबकि सल्फर, क्रोमियम, निकिल, मैंगनीज उत्तर प्रदेश से आए। कॉपर कैडमियम और लेड नेपाल की हवा से यहां पहुंचे। वहीं लेड, टिन और सेलेनियम के कण हरियाणा, पंजाब और पाकिस्तान की हवा से पहुंचे।

उन्होंने बताया कि पांचवे शोध पत्र में यह बात सामने आई है कि मानसून के बाद की हवा वायु प्रदूषण के लिहाज से बेहद संवेदनशील होती है। बीते दस साल में यह देखा गया है कि लगातार मानसून के बाद वायु प्रदूषण बद से बदतर होता जा रहा है।

श्लोका नाथ ने बताया कि देश में वायु प्रदूषण के आंकड़ों की कमी को दूर करने के लिए चार हजार मॉनिटरिग स्टेशन चाहिए। डॉ. अरविंद कुमार ने कहा, कोविड की वजह से हुई तालाबंदी का असर पर्यावरण पर साफ है। खासतौर से इसलिए क्योंकि इस दौरान फेफड़ो की बीमारी से जूझ रहे मरीजों की हालत में सुधार हुआ है। डॉ. वीएम मोठ्घरे ने कहा कि प्रदूषण पर सटीक जानकारी नीति निर्धारण में मदद करती है।

क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक आरती खोसला ने कहा कि देश में जन स्वास्थ्य पर प्रदूषण के असर को समझने के लिए ऐसी बारीक जानकारी बेहद जरूरी है। अब जब इस शोध से यह पता चलता है कि दिल्ली की हवा में लेड, क्लोरीन, निकिल जैसे तत्व हैं, तब स्मॉग टावर और स्मॉग गन जैसे समाधान न सिर्फ संसाधनों की बर्बादी बल्कि दिशाहीन भी सिद्ध होते हैं। इसलिए अब केंद्र और राज्य सरकारों को बड़े उत्सर्जकों पर नकेल कसते हुए धीरे-धीरे इन उत्सर्जनों को कम करने के लिए स्थानीय निकायों के विकल्प तलाशने होंगे।


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