खेल में अतीत की गलतियों के बजाय भविष्य के सुधारों पर हो नजर
इंग्लैंड को जिस तरीके से विजेता घोषित किया गया उसे लेकर दुनियाभर के क्रिकेट प्रेमी लगातार अफसोस जता रहे हैं।
(तरुण गुप्त)। गत रविवार को खेलों की दुनिया में एक विचित्र विरोधाभास का अनुभव हुआ जिसमें खेलों का रोमांच और मानवीय हताशा अपने चरम पर थी। क्रिकेट विश्व कप फाइनल और विंबलडन फाइनल के परिणाम ने खेल प्रशंसकों के एक बड़े वर्ग को मायूसी से भर दिया।
इंग्लैंड को जिस तरीके से विजेता घोषित किया गया उसे लेकर दुनियाभर के क्रिकेट प्रेमी लगातार अफसोस जता रहे हैं। जब मैच दो बार टाई हो गया तो बाउंड्री के आधार पर परिणाम तय करना स्पष्ट रूप से असंगत और बेतुका था। इस पर हो रहे कोलाहल से नियमों में कुछ परिवर्तनों की जमीन तैयार होनी चाहिए। संभवत: इसके साथ ही यहां वाद-प्रतिवादों पर विराम लग जाना चाहिए। हालांकि कुछ लोगों द्वारा न्यूजीलैंड को संयुक्त विजेता घोषित किए जाने की दलील कुछ अतिरेकपूर्ण प्रतीत होती है। यह पहला अवसर नहीं है जब एक टीम को किसी हास्यास्पद नियम का खामियाजा भुगतना पड़ा है।
मुझे वर्ष 1992 के विश्व कप में इंग्लैंड और दक्षिण अफ्रिका के बीच खेला गया सेमीफाइनल याद आता है जिसमें बारिश ने खलल डाला था। तब दक्षिण अफ्रका के सामने 13 गेंदों में 22 रनों के कठिन किंतु संभव लक्ष्य को बदलकर एक गेंद में 21 रन का असंभव लक्ष्य दे दिया गया था। इस मैच का अंत क्रूर मजाक बन गया। इसके साथ ही उस डकवर्थ-लुइस प्रणाली का भी आगाज हुआ जिसकी अपनी तमाम जटिलताएं हैं। अनुचित नियमों के और भी उदाहरण हैं। क्या यह नियम भी न्यायोचित है कि लीग मैचों की अंक तालिका में शीर्ष पर रहने वाली टीम एक सेमीफाइनल मैच हारने के बाद बाहर हो जाए? ऐसे में आइपीएल की क्वालीफायर/एलिमिनेटर वाली व्यवस्था बेहतर नहीं जिसमें शीर्ष पर रहने वाली दो टीमों को एक और अवसर मिलता है? उसी क्रम में क्या फाइनल मुकाबला भी बेस्ट ऑफ थ्री हो तो क्या अधिक उपयुक्त नहीं रहेगा? कई स्तरों पर ऐसे प्रश्न उठाए जा सकते हैं।
विंबलडन फाइनल का फैसला भी अंतिम सेट के टाईब्रेक नियम से हुआ जब 12 गेम बराबरी पर छूट गए थे। यह नियम भी इसी साल से लागू हुआ था। इस मैच में रोजर फेडरर हर मोर्चे पर अपने प्रतिद्वंद्वी से बढ़त बनाए रहे, चाहे वह पाइंट्स की बात हो, गेम्स की, विनर्स की, सर्व ब्रेक्स या एस की। फिर भी आठ बार के इस चैंपियन को केवल टाईब्रेक हारने के कारण मैच गंवाना पड़ा। कहीं न कहीं इन नियमों ने फेडरर और दुनिया भर में फैले उनके प्रशंसकों को निराश किया होगा और उनके मन में इसे लेकर प्रश्न उठ रहे होंगे। खेल भी जीवन की तरह त्रुटिहीन या परिपूर्ण नहीं होते। उपरोक्त विवरणों में जिन विवादित नियमों का उल्लेख है, वे भले ही कितने मूर्खतापूर्ण क्यों न लगें, लेकिन वे मैच के बाद नहीं बनाए गए। टूर्नामेंट शुरू होने के बहुत पहले ही वे अस्तित्व में आ गए थे। प्रत्येक खिलाड़ी और टीम को उनकी जानकारी होती है या फिर होनी चाहिए। ये नियम सभी पर बिना किसी भेदभाव के एकसमान रूप से लागू भी होते हैं। स्मरण रहे कि नियमों में संशोधन हमेशा भविष्य के गर्भ में होता है और उन्हें अतीत से लागू नहीं किया जा सकता।
विश्व कप फाइनल के बाद एक और विवाद ने दस्तक दी कि अंपायर की गलती से इंग्लैंड को पांच के बजाय छह रन दे दिए गए। हां, नियमों के अनुसार यह एक गलती थी, क्योंकि आउटफील्ड से थ्रो होने तक बल्लेबाजों ने दो रनों के लिए एक दूसरे को क्रॉस नहीं किया था और इस लिहाज से वह अतिरिक्त रन नहीं दिया जाना चाहिए था। हालांकि तर्क करने के लिहाज से शायद यह दलील भी दी जा सकती है कि ओवरथ्रो का यह नियम अपने आप में अनुचित है, क्योंकि सीमा रेखा पार करने से पहले गेंद जब बल्ले से टकराई तब तक बल्लेबाज दो रन पूरे कर चुके थे और ऐसे में बेहतर होता कि इसमें अहम बिंदु थ्रो करने के बजाय बल्ले पर गेंद के लगने को माना जाना चाहिए था और इस प्रकार ओवरथ्रो के चार रनों के साथ और दो रन दिए जाने चाहिए थे। इस आधार पर आप शायद ओवरथ्रो नियमों में संशोधन का आधार तैयार कर सकते हैं। कोई भले ही यह तर्क दे, लेकिन इसमें कोई संशय नहीं कि वर्तमान नियमों के अनुसार अंपायर का यह निर्णय गलत था, परंतु इसमें कोई दुर्भावना नहीं थी। वैसे भी खेलों की दुनिया में नियम या परंपरा यही है कि अंपायर का फैसला ही सर्वोपरि माना जाता है जिसे सहिष्णुता के साथ स्वीकार करना ही खेल भावना का परिचायक होता है। साथ ही अंपायरिंग की गड़बड़ का भी यह पहला मामला नहीं था। ऐसी गलतियां निश्चित रूप से निंदनीय हैं, लेकिन उन्हें नतीजे बदलने का आधार नहीं बनाया जा सकता।
नियम, कायदे और कानून सदैव स्थायी या शाश्वत नहीं होते। उनमें प्रवाह बना रहता है और समय के साथ उनमें बदलाव भी होता है। खराब अनुभव के बाद आवश्यक संशोधन अवश्य किए जाने चाहिए। तकनीक के इस्तेमाल को बढ़ाकर अंपायरिंग गलतियों में कमी लाई जा सकती है। जहां आवश्यक हो वहां अक्षम अंपायरों पर कार्रवाई भी होनी चाहिए। न्यूजीलैंड के साथ यकीनन तौर पर आपकी सहानुभूति हो सकती है, लेकिन इंग्लैंड से भी उसका श्रेय नहीं छीना जाना चाहिए। यह सही है कि भाग्य ने उनका साथ दिया, लेकिन फिर भी इस टीम ने बढि़या खेला और नियमों के दायरे में जीत हासिल की। पराजित के साथ संवेदनाएं उचित हैं, लेकिन किसी की जीत में बेवजह मीन-मेख निकालना सही नहीं। विडंबना है कि कुछ त्रासदियों में केवल पीडि़त होते हैं, दोषी नहीं। यह भी जीवन का एक रूप है।