खुद को सरकारी नहीं कहलवाना चाहता दुनिया का सबसे धनी क्रिकेट बोर्ड
विधि आयोग ने अपनी सिफारिश में कहा है कि बीसीसीआइ भी देश के दूसरे खेल संघों की तरह है और वह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत सरकारी संस्था होने के तमाम मापदंडों पर पूरी तरह खरा उतरता है।
[डॉ. आलमगीर]। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआइ) दुनिया का सबसे धनी और व्यावसायिक रूप से संपन्न क्रिकेट बोर्ड है। वह देश के दूसरे खेल संघों से इतर निजी संस्था होने का दावा करता रहा है। इसे किसी भी सूरत में न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता है। ऐसे में दीगर खेल संघों की तरह बीसीसीआइ और उसकी सहायक इकाइयों को भी सरकार और सूचना के अधिकार कानून के दायरे में लाने के विधि आयोग की सिफारिशें स्वागतयोग्य हैं। विधि आयोग ने अपनी सिफारिश में कहा है कि बीसीसीआइ भी देश के दूसरे खेल संघों की तरह है और वह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत सरकारी संस्था होने के तमाम मापदंडों पर पूरी तरह खरा उतरता है। इसलिए उसे भी आरटीआइ के दायरे में लाने के आवश्यकता है। इससे बीसीसीआइ के कामकाज में पारदर्शिता लाने और उसे लोगों के प्रति जवाबदेह बनाने में मदद मिलेगी। यानी राष्ट्रीय या फिर जोनल स्तर के खिलाड़ियों के चयन तक पर लोगों को सवाल खड़े करने का अधिकार होगा।
आयोग की सिफारिशें
इससे केवल योग्य खिलाड़ियों के चयन से हमारे पास उनका और बेहतर पूल तैयार होगा। आयोग की ये सिफारिशें भारतीय क्रिकेट बोर्ड को भ्रष्टाचार मुक्त करने और उसकी कार्यशैली में सुधार लाने की दिशा में बड़ा कदम साबित हो सकती है। बस शर्त यह है कि सरकार इसे मान ले। दरअसल बोर्ड को पारदर्शी और जवाबदेह बनाने की मांग कोई नहीं है, लेकिन सरकारें इसके प्रति कभी संजीदा नहीं रही हैं। बीसीसीआइ में राजनेताओं और उद्योगपतियों का जमावड़ा होना कोई महज संयोग की बात नहीं है। उनके द्वारा इसका अपने निजी स्वार्थो और व्यावसायिक हित साधने के लिए इस्तेमाल करने के भी मामले गाहे-बगाहे सामने आते रहे हैं। शायद इसी वजह से तमाम सरकारी लाभ, छूट और रियायतें देने के बावजूद बीसीसीआइ ने अपने ऊपर निजी संस्था होने के विशेषाधिकार का चोला ओढ़े रखा है।
बीसीसीआइ एक निजी संस्था
फिलहाल बीसीसीआइ तमिलनाडु सोसायटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट के तहत एक निजी संस्था है। इसके इस विशेष दर्जे को चुनौती देने वाली एक याचिका पर 2004 में बीसीसीआइ ने अदालत में दलील दी थी कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलने वाली भारतीय टीम अधिकारिक तौर पर बीसीसीआइ की टीम होती है न कि भारतीय। इसके अतिरिक्त न तो उसके जरिये राष्ट्रीय ध्वज का प्रयोग होता है और न ही किसी अन्य राष्ट्रीय प्रतीक का। बोर्ड महज अपने ‘निजी संस्था’ के दर्जे को यथावत रखने के लिए इतना कैसे गिर सकता है कि उसे करोड़ों भारतीयों की उस भावना की भी कद्र न हो जो क्रिकेट जैसे जुनून के माध्यम से उन्हें एक धागे में पिरोकर एक कौम बनाती है। निजी संस्था के पीछे बीसीसीआइ के तर्क और भी हैं।
बंदिशों में नहीं लाया जा सकता
मसलन उसका कहना है कि वह प्रत्यक्ष रूप से सरकार से कोई आर्थिक सहायता नहीं लेता इसलिए उसे इन दायरों की कैद और बंदिशों में नहीं लाया जा सकता है। जबकि अपनी बेतहाशा आमदनी पर हजारों करोड़ रुपये के कर्ज की छूट लेने और स्टेडियम व खेलों के अन्य स्थल बनवाने के नाम पर सस्ती सरकारी जमीनें हासिल करने में उसे कोई परहेज नहीं है। एक अनुमान के अनुसार साल 1997 से लेकर 2007 के दौरान बीसीसीआइ को 2100 करोड़ रुपये से अधिक की टैक्स छूट दी गई। हालांकि 2007-2008 में इनकम टैक्स एक्ट के अनुच्छेद 12ए के तहत इसके चैरिटेबल ट्रस्ट होने की मान्यता को रद कर दिया गया, लेकिन दिसंबर 2014 में वित्त मंत्रलय की एक रिपोर्ट के अनुसार बीसीसीआइ और आइपीएल के खिलाफ टैक्स चोरी के 213 मामले सामने आए।
कारण बताओ नोटिस जारी
इसी तरह कर चोरी के लिए 2011 में आयकर विभाग ने बीसीसीआइ को 96 और प्रवर्तन निदेशालय ने 19 कारण बताओ नोटिस जारी किए। इससे बोर्ड के उस दावे में कोई दम नजर नहीं आता कि उसके द्वारा पारदर्शिता का पूरा ध्यान रखा जाता है और 25 लाख रुपये से अधिक के तमाम खर्चो और खाते की ऑडिट रिपोर्ट को वेबसाइट पर डाला जाता है। अजीब बात यह है कि स्वायत्तता का स्वांग रचने की जुगत में बीसीसीआइ को भारत के दीगर खेल संघों की तरह ‘खेल एवं युवा मंत्रलय’ की वेबसाइट पर अपना नाम तक गंवारा नहीं है, लेकिन खेल के लिए दिए जाने वाले प्रतिष्ठित अजरुन पुरस्कारों के लिए नामों की सिफारिश करने में वह सबसे आगे रहता है। यानी सुविधाओं के नाम पर सभी सरकारी भेंट स्वीकार हैं, लेकिन स्वयं को सरकारी कहलवाना पसंद नहीं है। आखिर क्यों?
इसके पारदर्शी होने से खतरा
जाहिर है कि दुनिया के अमीरतरीन क्रिकेट बोर्ड में सालों से जमे कुछ लोगों को इसके पारदर्शी होने से खतरा है। हालांकि सवाल बेजा नहीं है कि किसी खेल संस्था में ऐसे लोगों का क्या काम जिनकी अगली-पिछली पीढ़ी का भी क्रिकेट से दूर-दूर का कोई वास्ता नहीं रहा है? ऐसे लोगों के ही कड़े प्रतिरोध के चलते 2005 में सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ ने भी अपने एक निर्णय में बीसीसीआइ को संविधान के अनुच्छेद 12 के अंतर्गत सरकारी संस्था मानने से इन्कार कर दिया था, लेकिन उसके बाद घटित हुए विवादों और घटनाक्रमों में भी इसकी मांग जब-तब जोर पकड़ती रही। विशेषकर हालिया वर्षो में इंडियन प्रीमियर लीग (आइपीएल) में सट्टेबाजी के मामलों पर सर्वोच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा।
क्रिकेट बोर्ड में सुधार
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने बोर्ड में सुधार के लिए देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस आरएम लोढ़ा की अध्यक्षता में एक समिति बनाई। लोढ़ा समिति को बोर्ड में गंभीर खामियां और भ्रष्टाचार नजर आया। इसी समिति ने अपनी सिफारिश में इसे सार्वजनिक संस्था मानने के साथ आरटीआइ एक्ट के तहत पारदर्शी और जवाबदेह बनाने की बात कही। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर विधि आयोग की सिफारिशें मांगी थी। लोढ़ा कमेटी की सिफारिश के बाद विनोद राय की अध्यक्षता में बनी प्रशासक कमेटी ने बीसीसीआइ की साफ-सफाई का काम कुछ हद तक तो कर ही दिया है। सरकार को चाहिए कि लोढ़ा कमेटी की तरह ही विधि आयोग की ताजा सिफारिशों को भी भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड में लागू करवाए ताकि राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तर पर भी उसकी कार्यशैली में अमूलचूल परिवर्तन आ सके।
[सहायक प्रोफेसर, जामिया मिलिया इस्लामिया]
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