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आईपीएल ने क्रिकेट में दिखाए छोटे शहरों को सपने, हुए बड़े बदलाव

जहां निजी पूंजी आधारित परियोजनाएं सामाजिक स्तर पर विभेद पैदा करने के कारकों में तब्दील हो जाती हैं, वहीं आइपीएल सामाजिक तौर पर इसकी सबसे सकारात्मक उपलब्धि है।

By Abhishek Pratap SinghEdited By: Published: Sat, 20 Jan 2018 10:25 AM (IST)Updated: Sat, 20 Jan 2018 01:19 PM (IST)
आईपीएल ने क्रिकेट में दिखाए छोटे शहरों को सपने, हुए बड़े बदलाव
आईपीएल ने क्रिकेट में दिखाए छोटे शहरों को सपने, हुए बड़े बदलाव

नई दिल्ली, [शाहनवाज आलम]। इंडियन प्रीमियम लीग (आइपीएल) इस साल अपने दसवें संस्करण के लिए तैयार है। अगर हम इसके शुरुआती दिनों के इर्द-गिर्द उठी बहसों और इसके भविष्य और मुख्य क्रिकेट के ढांचे पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों की आशंकाओं को याद रखें तो इसका दसवें साल में कामयाबी के साथ प्रवेश कर जाना एक चमत्कार माना जाएगा। वहीं यह न सिर्फ दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सबसे पसंदीदा खेल के प्रति लोगों के बढ़ते लगाव को ही दर्शाता है बल्कि इस खेल को देखने के नजरिये में आए सकारात्मक बदलावों को भी दिखाता है।

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मसलन, जब 2008 में यह शुरू हुआ तब इसके आलोचकों की मुख्य चिंता थी कि इससे टेस्ट और एक दिवसीय क्रिकेट की शास्त्रीय शैली पर असर पड़ेगा। बल्लेबाज ज्यादा से ज्यादा रन बनाने के दबाव में अपनी तकनीक खराब कर लेंगे वहीं गंेदबाज विकेट लेने के बजाय किसी तरह अपने चार ओवर निकाल लेने के दबाव में खेलेंगे, जिससे फिर वे टेस्ट और एकदिवसीय क्रिकेट लायक नहीं बचेंगे। याद रहे कि इन्हीं वजहों से उस दौरान तीनों संस्करणों के लिए अलग-अलग टीम रखने की भी बात उठती थी, लेकिन आज दस साल बाद लगभग यह सारे ही सवाल अप्रसांगिक हो चुके हैं। हां, इसमें पैसे के बोल-बाले और उसके साथ आने वाली बुराइयां जरूर ऐसी चिंताएं हैं जिससे अभी निपट पाने में आइपीएल पूरी तरह सफल नहीं हो पाया है। मगर 2013 के बाद ऐसे सवालों का दोबारा न उठना बेहतर उम्मीद जगाता है।

अगर बल्लेबाजी की बात करें तो इसने इसकी शैली और तकनीक दोनों में वृद्धि की है। विकेट के ठीक पीछे छक्का पहले सिर्फ गलती से एज लगने से जाया करता था, लेकिन अब यह अपने आप में एक स्वतंत्र शॉट का रूप अख्तियार कर चुका है। वहीं टी-20 से पहले किसी मध्यम तेज गेंदबाज को कोई बल्लेबाज स्वीप शॉट से चुनौती देने की सोच भी नहीं सकता था। मगर अब डेल स्टेन और माइकल स्टार्क जैसे 150 किलोमीटर की रफ्तार से गेंद फेंकने वालों को भी स्वीप शॉट से छक्का खाना पड़ता है। यह तकनीक के स्तर पर एक क्रांतिकारी बदलाव है। जहां शुरू में इसे स्पिन गेंदबाजों के लिए कत्लगाह माना जाता था वहीं आज स्थिति यह है कि इन दस सालों में सबसे ज्यादा विकेट लेने वाले शीर्ष के पांच गेंदबाजों में अमित मिश्र, हरभजन सिंह और पीयूष चावला जैसे फिरकी गेंदबाज हैं। यानी टेस्ट और एक दिवसीय की तरह ही इसमें स्पिनरों की भूमिका सम्मान के साथ बरकरार है। यानी जो आशंकाएं तकनीकी आधार पर उठाई जा रही थीं वह गलत साबित हुई हैं।

आइपीएल ने क्रिकेटर बनने का सपना देखने वालांे के लिए भी अवसरों में इजाफा किया है। क्योंकि इससे पहले सिर्फ अंतरराष्ट्रीय टीम और राज्यों की रणजी टीम ही प्लेटफार्म थीं जिनमें अक्सर बड़े शहरों के लड़कों को ही जगह मिल पाती थी। छोटे शहरों के लड़के बहुत प्रतिभा होने के बावजूद कुंठा के शिकार हो जाते थे, लेकिन आइपीएल ने इन छोटे शहरों के अनजान लड़कों में उत्साह भर दिया है। उनमें अपनी पहचान बनाने की भूख पैदा कर दी है। अब वे अफरशाही की शिकार प्रथम श्रेणी क्रिकेट संस्थानों के भरोसे नहीं हैं।

वहीं आइपीएल के साथ टीमों के अंदर भी एक सुखद सांस्कारिक बदलाव आया है। जहां अब बड़े और छोट या नए या पुराने खिलाड़ी के बीच स्टेटस का अंतर बहुत कम होता गया है। इससे खिलाड़ियों में ज्यादा मानवीय और बराबरी का संबंध विकसित हुआ है जिसे पूर्व अंतरराष्ट्रीय गेंदबाज चेतन शर्मा के इस वक्तव्य से समझ सकते हैं कि जब वह सुनील गावस्कर के साथ टीम में खेलते थे तब भी उनके जैसे बड़े स्टार से हाथ मिलाने में उन्हें संकोच होता था, लेकिन आइपीएल ने इस माहौल को बदल दिया है। अब एक नया खिलाड़ी भी बड़े नाम के खिलाड़ी की भी विकेट लेने या कैचे लेने के बाद पीठ थपाथपा सकता है। यह एक बड़ा बदलाव है जिसने नए खिलाड़ियों में आत्मविश्वास भरा है तो वहीं वरिष्ठ खिलाड़ियों में अपने नए आगंतुकों के प्रति जिम्मेदारी का बोध भी भरा है। इससे टीम के अंदर सीखने और सिखाने का एक नया माहौल बना है। यह खेल के लिए अच्छा है।

आइपीएल ने एक समाज के बतौर हमें ज्यादा लोकतांत्रिक भी बनाया है। यहां याद रखने की जरूरत है कि लोकतांत्रिक मूल्यों में सबसे अहम किसी के साथ भी क्षेत्रीयता, नस्ल या जाति-धर्म के साथ भेदभाव का निषेध के साथ ही व्यक्ति की अपनी अहमियत और योग्यता को महत्व दिया जाना है। इस लिहाज से देखा जाए तो जब आइपीएल की शुरुआत हुई थी तब यह सवाल बार-बार मन में उठता था कि यूरोप के फुटबॉल क्लबों के पेशेवर तर्ज पर आधारित इस क्रिकेट संस्करण को पसंद न किया जाए क्योंकि यहां क्रिकेट के प्रति भावनाएं हमेशा से देशों या उसके बाद क्षेत्रीय स्तरों पर बंटी थीं और उसी तरह दर्शकों की वफादारी भी बंटी थी। कभी भी खिलाड़ी की क्षमता या प्रतिभा दर्शक के क्षेत्रीय आंकाक्षा पर भारी नहीं हो पाती थी, लेकिन आइपीएल ने इस मनोवैज्ञानिक बाधा को तोड़ दिया है। इसने लोगों को टीम के साथ ही व्यक्तिगत स्तर पर खिलाड़ी की प्रतिभा को सराहने की समझ प्रदान की है। अब किसी भी राज्य की टीम के दशर्क को इससे फर्क नहीं पड़ता कि उसकी पसंदीदा टीम में इस बार वह बाहरी या विदेशी खिलाड़ी भी खेल रहा है जो पिछले साल विरोधी टीम में था।

दूसरे शब्दों में आइपीएल ने दशर्को की अतार्किक भावनात्मक आक्रामकता को कम किया है। जिस खेल के इर्द-गिर्द इतना जुनून हो, यह एक बड़ा बदलाव है। इस मामले में हम कह सकते हैं कि यूरोप के व्यावसायिक सॉकर लीग के मुकाबले हम बेहतर स्थिति में हैं जहां मैचों के दौरान हिंसा का भड़क जाना बहुत साधारण बात रही है। हम कह सकते हैं कि उदारीकृत भारत में जहां निजी पूंजी आधारित अधिकतर परियोजनाएं सामाजिक स्तर पर विभेद पैदा करने के कारकों में तब्दील होती गई हैं, आइपीएल सामाजिक तौर पर इसकी सबसे सकारात्मक उपलब्धि है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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