चित्त का इष्ट में तन्मय होना ही सेवा का स्वरूप है
चित्त का इष्ट में तन्मय होना ही सेवा का स्वरूप है। भक्तिरस के आचार्यो ने भगवत-सेवा तीन प्रकार की बताई है- तनुजा (तन द्वारा), वित्तजा (द्रव्य से) एवं मानसी (मानसिक)।
चित्त का इष्ट में तन्मय होना ही सेवा का स्वरूप है। भक्तिरस के आचार्यो ने भगवत-सेवा तीन प्रकार की बताई है- तनुजा (तन द्वारा), वित्तजा (द्रव्य से) एवं मानसी (मानसिक)। किसी वाह्य साधन के बिना केवल मन के भावों द्वारा की जाने वाली इष्ट परिचर्या मानसी सेवा कहलाती है। इसमें इष्ट, सेवक एवं सेवा-सामग्री सभी भाव द्वारा निर्मित होते हैं। वृंदावनीय रसोपासना विशुद्ध मानसी उपासना है, जिसमें नीरस कर्मकांड के लिए कोई स्थान नहीं। इसमें इष्ट-सेवा की तीन स्थितियां मान्य हैं-प्रकट सेवा, मानसी सेवा और नित्य-विहार। प्रकट सेवा में मनोयोग बिना भी सेवा-कार्य चल सकता है, किंतु मानसी सेवा अत्यंत सूक्ष्म एवं भावगम्य है। मन स्वभावत: अति चंचल एवं विषयानुगामी है। भक्तजन प्राय: भगवान् की अनुपम रूप-माधुरी का पान कराके चंचल चित्त को अभ्यास एवं वैराग्य द्वारा स्थिर करते हैं-चंचल तो मन की गति है अलि रूप सुमन वन में फिरिए। कुंडल लोल कपोलनि में अलकनि झलकनि चित्त में धरिए। एक बार स्वामी श्री अग्रदासजी श्री सीता-राम की मानसी-सेवा में तल्लीन थे और उनके शिष्य श्रीनाभाजी उन्हे पंखा झल रहे थे तभी श्रीअग्रदास का कोई शिष्य जहाज पर समुद्र की यात्रा करते भंवर में फंस गया।
इससे उनकी सेवा में विघ्न पड़ता देख श्रीनाभाजी ने पंखे की वायु के प्रवाह से जहाज को संकट से उबारकर गुरुदेव को पुन: मानसी-सेवा में लगा दिया। इसी प्रकार, राधाकुंड निवासी श्रीरघुनाथदास गोस्वामी को श्रीराधा-कृष्ण की मानसी-सेवा सिद्ध थी। वह प्रतिदिन केवल दोना भर छाछ ही लेते। एक बार उनके अस्वस्थ होने पर अनुभवी वैद्य ब्रंादास ने नाड़ी-परीक्षण कर बताया कि इन्होंने दूध-भात खाया है। तब लोगों का कौतूहल शांत करते हुए उन्होंने स्वयं रहस्योद्घाटन किया कि मानसी-सेवा में प्रिया-प्रियतम को दूध-भात का भोग लगाकर उनके आग्रह से प्रसाद ग्रहण किया था। मानसी-सेवा में वन-विहार, रास-लीला आदि दुर्लभ लीलाओं का भी रसास्वादन संभव है।
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