यही वक्त है खरीद लें मकान
हकीकत यह है कि मकानों के दाम अब और गिरने वाले नहीं हैं। बाजार की स्थिति कुछ भी हो, निर्माण खर्च तो बढ़ ही गया है। हर चीज महंगी हो चुकी है। मांग पैदा करने के लिए कंपनियां जितने दाम घटाने थे घटा चुकी हैं।
यह सुविदित तथ्य है कि देश में मकानों की कमी है। महानगरीय इलाकों में दो करोड़, तो टियर-2 व टियर-3 शहरों में चार करोड़ मकानों की कमी है। वैसे मुंबई की एक यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री ने देश में 11 करोड़ मकानों की जरूरत बताई थी। इस तरह छोटे कस्बों के लिए पांच करोड़ मकान और चाहिए। इस
कमी को दूर करने के लिए सरकार ने अपनी छह-सात वर्षों की योजना पेश की है।
लेकिन निजी क्षेत्र के सहयोग के बगैर इस लक्ष्य को पाना कठिन है। अक्सर यह तर्क दिया जाता है, और जो सही भी है, कि सबसे ज्यादा कमी अल्प और निम्न आय वर्ग (एलआइजी और ईडब्लूएस) के मकानों की है। निजी क्षेत्र की इनमें कोई रुचि नहीं है। लेकिन इस मामले में हमें दो तथ्य नहीं भूलने चाहिए:
1. ग्यारह करोड़ मकानों की कमी का जो आंकड़ा दिया गया है उसमें 90 फीसद
एलआइजी और ईडब्लूएस श्रेणी के हैं। बाकी 10 फीसद कमी एमआइजी और एचआइजी
मकानों की ही है। इस श्रेणी में निजी क्षेत्र आक्रामक ढंग से काम कर रहा है।
फलस्वरूप एमआइजी और एचआइजी मकानों की आपूर्ति मांग से अधिक हो गई है।
महानगरों में बनाए गए ये मकान बिक नहीं पा रहे हैं।
निम्न व कम आय वर्ग वाले मकानों में निजी क्षेत्र के रुचि न लेने का कारण यह है कि
सरकारें निजी क्षेत्र को इस क्षेत्र में लाभ का धंधा करने की इजाजत ही नहीं देतीं। एक तो
अफसरशाही मंजूरियों में अड़ंगा लगाती है।
जबकि सरकारें लैंड यूज नियमों में बदलाव कर देती हैं। यदि ऐसे इलाकों में स्वप्रमाणन
की व्यवस्था कर दी जाए और साथ में कुछ वित्तीय प्रोत्साहन भी दिए जाएं तो कोई वजह
नहीं कि निजी क्षेत्र इन मकानों में रुचि न ले।
2. आज के दौर में कोई भी व्यक्ति लैंड यूज अधिग्रहणों को खारिज नहीं कर सकता।
इसके अलावा राजनीतिक दलों की व्यक्तिगत खुन्नसें भी होती हैं। वे निजी डेवलपर्स को
भूमि अधिग्रहण में मदद करने के बजाय उनकी राह में रोड़े अटकाते हैं। इसका
नतीजा यह होता है कि न तो निजी कंपनियों को कभी असली कीमत पर जमीन अधिग्रहण
का मौका मिलता है। और न ही किसान अपनी जमीन का सही मूल्य ले पाते हैं।
मंजूरियों के मामले में बुनियादी चुनौती यह है कि डेवलपर्स की राह में रोड़ा अटकाने के
लिए ऐतिहासिक रूप से अनावश्यक कदम उठाए गए हैं। डेवलपर्स को कभी इस तो
कभी उस सर्टिफिकेट के लिए अधिकारियों के चक्कर लगाने पड़ते हैं। जबकि कायदे से
यह प्रक्रिया एकदम सरल, तीव्र और पारदर्शी होनी चाहिए। यानी प्लान जमा करो, मंजूरीलो और पर्यावरण व फायर आदि की मंजूरियां लेने के बाद समय पर प्रोजेक्ट को पूरा कर दो। लेकिन यहां तो प्रोजेक्ट पूरा करने के बावजूद कंप्लीशन और ऑक्यूपैंसी जैसे सर्टिफिकेट लेने के लिए अधिकारियों की खुशामद करनी पड़ती है। अनेक राज्यों में परियोजना की मंजूरी के बाद डेवलपर को कमेंसमेंट सर्टिफिकेट भी लेना पड़ता है।
निर्माण प्रारंभ होने के बाद हर चार-पांच महीने में प्लिंथ सर्टिफिकेट लेने की बाध्यता
भी है। यह उत्पीडऩ के अलावा कुछ नहीं क्योंकि जहां ये सारे सर्टिफिकेट लिए जाते हैं
वहां भी गड़बडिय़ां होती हैं। उदाहरण के लिए मुंबई के कैंपा कोला प्रोजेक्ट में प्लिंथ
और कमेंसमेंट सर्टिफिकेट दोनों लिए गए थे।
इसके बावजूद नगर निगम की नाक के नीचे ही अनधिकृत निर्माण किए गए। इस मामले में सबसे अच्छा उदाहरण एनसीआर में नोएडा का है। जहां मंजूरियों में तीन-चार माह से ज्यादा का वक्त नहीं लगता। आपका प्लान स्वीकृत हो गया तो आप निर्माण शुरू कर सकते हैं। प्रोजेक्ट पूरा हो जाने पर प्राधिकरण से कंप्लीशन
सर्टिफिकेट मिल जाता है। लेकिन यदि इमारत स्वीकृत प्लान के अनुसार नहीं बनाई गई है तो बहुत तगड़ा जुर्माना लगाया जाता है। यदि इस तरह की प्रणाली पूरे देश में लागू हो जाए तो इससे मकानों की लागत में काफी
हद तक कमी आ सकती है।
आपको यह सब बताने का मकसद रीयल एस्टेट बाजार की स्थिति से अवगत कराना
था। ताकि मकान खरीदने के बारे में सही फैसला कर सकें। ज्यादातर लोग यह उम्मीद
लगाए बैठे हैं कि मकानों के दाम अभी और गिरेंगे। इस चक्कर में जो लोग मकान
खरीदने जा रहे थे वे भी फिलहाल रुक गए हैं। जबकि हकीकत यह है कि मकानों के
दाम अब और गिरने वाले नहीं हैं। बाजार की स्थिति कुछ भी हो, निर्माण खर्च तो बढ़ ही
गया है। हर चीज महंगी हो चुकी है। मांग पैदा करने के लिए कंपनियां जितने दाम
घटाने थे घटा चुकी हैं। जिन इलाकों में मकानों का रेट 3500-6500 रुपये प्रति वर्ग
फुट के बीच है वहां और दाम घटने की गुंजाइश नहीं बची है। पूरे देश में मकानों की
जमीन 1500-3000 रुपये प्रति वर्ग फुट के दायरे में बिक रही है। जबकि महानगरों व
टियर-1 शहरों में जमीन की दरें 5000- 15000 रुपये प्रति वर्ग फुट हैं। ऐसे में
मकानों के दाम में कमी उन्हीं इलाकों में संभव है जहां कीमत अनुचित रूप से ज्यादा
है।
फिर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज भी रीयल एस्टेट को सबसे बढिय़ा निवेश माना
जाता है। इससे ऐसी संपत्ति का सृजन होता है जिसके दाम अगले पांच वर्षों में बढऩे ही हैं।
इसलिए इस उद्योग में अपने तीस साल के अनुभव के आधार पर मेरी लोगों को यही
सलाह है कि वे देर न करें और अभी जाकर मकान खरीद लें। अगले 6-8 महीनों बाद
इतना सस्ता सौदा मिलने वाला नहीं है।
गीतांबर आनंद
प्रेसीडेंट, क्रेडाई नेशनल