निवेशकों के लिए 2016 क्या 2008 है?
ऐसे लोगों की संख्या काफी अधिक है जो मानते हैं कि 2016 में ग्लोबल बाजार में गिरावट आएगी। इनमें कुछ ऐसे लोग भी हैं जो बरबस ध्यान खींचते हैं। ऐसा ही एक नाम है जॉर्ज सोरोस। भारत तथा विदेश में ऐसी सोच रखने वाले अन्य लोग भी हैं। क्या उनका मानना सही
ऐसे लोगों की संख्या काफी अधिक है जो मानते हैं कि 2016 में ग्लोबल बाजार में गिरावट आएगी।
इनमें कुछ ऐसे लोग भी हैं जो बरबस ध्यान खींचते हैं। ऐसा ही एक नाम है जॉर्ज सोरोस।
भारत तथा विदेश में ऐसी सोच रखने वाले अन्य लोग भी हैं। क्या उनका मानना सही है?
क्या निवेशकों को वास्तव में चिंता करने की जरूरत है?
पिछले तीन या चार वर्ष से इस तरह की भविष्यवाणी के साथ एक समस्या 2008 की
मंदी की छाया रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि जो लोग भी ऐसी भविष्वाणी करते हैं वे 2008
की मंदी से तुलना किए बगैर ऐसा नहीं कर पाते। मीडियाकर्मी भी अपनी चर्चा में यही बात
कहते हैं कि ग्लोबल मंदी क्या 2008 जैसी होगी या नहीं। 2008 की मंदी एक हाथी की
तरह है जो कमरे में बंद हो और अंदर मौजूद सब लोग अंधे हों। विभिन्न लोगों के लिए
इसका मतलब भिन्न है। जब कोई भारतीय इक्विटी निवेशक यह सुनता है कि 2008 की
तरह मंदी आएगी तो वह सोचता है कि स्टॉक में आधी या उससे कम गिरावट दर्ज की
जाएगी। अमेरिका में कोई व्यक्ति सोचेगा कि वॉल स्ट्रीट से कोई बड़ी कंपनी का सफाया हो
गया या उसे सरकार ने बचा लिया। अगर कोई व्यक्ति गैर वित्तीय कारोबार में है तो वह सोचेगा
कि अचानक से ऋण प्रवाह रुक गया। जो व्यक्ति सरकार या केंद्रीय बैंक में है उसका
नजरिया 2008 के बारे में पूरी तरह भिन्न होगा।
बहुत से लोगों के लिए 2008 की मंदी भय के कारण थी लेकिन यह अंशकालिक थी। मुझे
याद है कि जब यह भय चरम पर था तो एक एसएमएस चुटकला चल रहा था जो इस प्रकार
था: पहला व्यक्ति- वित्तीय संकट से मैं वास्तव में निराशावादी बन गया हूं। मैं सोना खरीदना
शुरू कर रहा हूं। दूसरा व्यक्ति: तुम आशावादी हो। मैं तो चावल खरीद रहा हूं। लेकिन अगर
यह संकट और इसकी वजह याद हो तो आप हाल में आई एक मूवी- 'द बिग शॉर्टÓ देखिए।
यह भारत में रिलीज नहीं हुई है इसलिए आपको इसे किसी अन्य तरीके से देखना
पड़ेगा।
बाजार में अगर गिरावट आती है तो इसमें 2008 की मंदी से कुछ समानता होगी और यदि
ऐसा होगा तो पहले आई मंदी से भी इसकी समानता होगी। या ऐसा नहीं होगा। आखिरकार
आगामी काल्पनिक मंदी चीन की अर्थव्यवस्था को प्रदर्शित करेगी। यह ऐसी होगी जैसे पहले
कभी नहीं हुई है इसलिए हम बिल्कुल अलग तरह का अनुभव करेंगे। इस सब का मतलब
यह है कि भविष्य में आने वाली कोई मंदी 2008 की तरह होगी या नहीं यह बिल्कुल
निरर्थक चर्चा है। आम निवेशकों के लिए सबसे महत्वपूर्ण यह बात है कि उन्हें क्या
करना चाहिए। क्या उन्हें इस मंदी की कहानी में भरोसा करना चाहिए? या फिर उन्हें यह
भरोसा करना चाहिए कि भारतीय कॉरपोरेट क्षेत्र के बुरे दिन अब बीत गए हैं जो कि एक
आम विचार है।
इसलिए क्या होना चाहिए? अगर इनमें से कुछ भी न हो तो? ऐसा क्यों नहीं किया जाए
कि बिना कोई चिंता किए बगैर निवेश जारी रखा जाए, भले ही कुछ भी हो? अगर 2008
की मंदी से कोई सीख लेनी है तो वह यह है कि आपको दीर्घावधि निवेश के साथ कुछ नहीं
करना चाहिए। अगर अपने इक्विटी (इक्विटी म्यूचुअल फंड) निवेश में आपने आने वाले
वर्षों के लिए कुछ बचत की है तो इस शोर को नजरअंदाज करना चाहिए। अगर किसी
एसआइपी के माध्यम से नियमित तौर पर नया निवेश कर रहे हैं तो भी इस शोर की अनदेखी
कर निवेश जारी रखना चाहिए।
जैसा कि मैंने इस कॉलम में कई हफ्ते पहले लिखा है। काफी संख्या में ऐसे लोग हैं जिन्होंने
इक्विटी म्यूचुअल फंड में निवेश करना शुरू कर दिया है। पीछे मुड़कर देखिए कि 2008 से
2011 के दौरान क्या हुआ। सबसे ज्यादा खराब स्थिति उन लोगों की थी जिन्होंने मंदी आने पर
शेयर बेच दिए और जब बाजार में पुन: तेजी आई तो खरीदना शुरू किया। इसके विपरीत वे
लोग सबसे अच्छे थे जिन्होंने मंदी के दौरान भी लगातार निवेश जारी रखा। उनका निवेश ठीक
रहा और मंदी के दौरान जो उन्होंने निवेश किया था उस पर अच्छा रिटर्न मिला। मुख्य बात यह
है कि आगे चलकर क्या होगा, इस बारे में कुछ भी निश्चित नहीं कहा जा सकता।
धीरेंद्र कुमार