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चाहिए उपभोक्ता संरक्षण को एजेंसी

अगर आप नियमित तौर पर कारोबार और निवेश से संबंधित समाचार पढ़ते हैं तो आपको निश्चित ही भारत में वित्तीय सेवाएं नियामक ढांचे के बारे में जानकारी होगी। जहां इरडा बीमा क्षेत्र का नियामक है, आरबीआइ बैंकों, सेबी म्यूचुअल फंड और शेयर बाजार का नियमन करता है। शायद आपको अमेरिका

By Babita KashyapEdited By: Published: Mon, 23 Nov 2015 11:37 AM (IST)Updated: Mon, 23 Nov 2015 11:42 AM (IST)
चाहिए उपभोक्ता संरक्षण को एजेंसी

अगर आप नियमित तौर पर कारोबार और निवेश से संबंधित समाचार पढ़ते हैं तो आपको निश्चित ही भारत में वित्तीय सेवाएं नियामक ढांचे के बारे में जानकारी होगी। जहां इरडा बीमा क्षेत्र का नियामक है, आरबीआइ बैंकों, सेबी म्यूचुअल फंड और शेयर बाजार का नियमन करता है। शायद आपको अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों में एसईसी और फेड जैसी नियामक एजेंसियों के बारे में भी जानकारी हो।

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हालांकि एक एजेंसी ऐसी है, जिसकी जरूरत सबसे ज्यादा भारत को है। शायद ही आपने किसी देश में ऐसी एजेंसी का नाम सुना हो। यह एजेंसी है उपभोक्ता वित्तीय संरक्षण ब्यूरो (सीएफपीबी) जो अमेरिका में काम करती है। यह एजेंसी 2010 के वित्तीय संकट के बाद बनायी गई थी। इसका मकसद वित्तीय कारोबारियों से उपभोक्ता को बचाना था।

भारत में यह कार्य इरडा, सेबी और आरबीआइ जैसे नियामकों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। भविष्य में जब भी वित्तीय क्षेत्र विधायी सुधार आयोग की सिफारिशें मूर्त रूप लेंगी तो शायद हमारे यहां भी उपभोक्ता संरक्षण संगठन बन जाए।

हालांकि मैं अधिक उम्मीद नहीं करता कि यह अर्थपूर्ण तरीके से होगा। मौजूदा नियामक किसी को भी उनके अधिकार क्षेत्र में कदम रखना पसंद नहीं करते। जिन लोगों को वित्तीय धांधली को खत्म करने से सबसे अधिक लाभ होगा उनका इसमें कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। आखिर हमें इस तरह की एजेंसी की जरूरत क्यों है? इसकी वजह साफ है। जब आप किसी क्षेत्र के विकास के लिए नीतियां तय करते हैं तो आपका उस क्षेत्र में हित पनप जाता है जिससे आप यह स्वीकार नहीं करते कि उस क्षेत्र में कोई कमी है। आप यह स्वीकार करेंगे कि कोई कंपनी नियमों को तोड़ रही है, लेकिन अगर कोई उपभोक्ता के साथ होने वाली धोखाधड़ी को रोकने के लिए आपके बनाए हुए नियमन क्षेत्र में ही सुझाव दे तो उसका विरोध करेंगे।

इसका सबसे खराब उदाहरण यूलिप है। बीमा कंपनियां और बीमा एजेंट उपभोक्ताओं को चूना लगा रहे थे। जबकि इरडा कई वर्षों तक इस संभावना को नकारता रहा कि उसने जो प्रोजेक्ट डिजाइन किया है उसमें कुछ गड़बड़ी है।

ऐसे ही उदाहरण आरबीआइ और सेबी से भी मिल सकते हैं। देश में चलने वाली अनगिनत जमा योजनाओं में अवैध तरीके से लोगों से धनराशि जमा कराने का ही मामला लीजिए। वैध तरीके से वित्तपोषित और नियामक एजेंसियों के रहते कानून के दायरे में रहकर भी ऐसी कंपनियां उपभोक्ताओं का नुकसान करती हैं। इससे निपटने के लिए बाहरी एजेंसी की जरूरत है।

दरअसल किसी एक व्यक्ति को वैध तरीके से चलने का दावा करने वाली कंपनियों के गलत व्यवहार पर अंकुश लगाने के लिए सक्रियता से कदम उठाने की जरूरत है। भारत में अभी तक ऐसी संस्था नहीं है। हमारे देश में अब भी अधिकांश मामलों में हम पुलिस की तर्ज पर शिकायतों पर कार्रवाई करते रहते हैं।

इस संबंध में सीएफपीबी की कार्रवाई एक शानदार उदाहरण है। यह एजेंसी एक क्रेडिट कार्ड जारी करने वाली कंपनी के खिलाफ कार्रवाई कर रही है जो उपभोक्ताओं के वैध अधिकारों को छीनने के लिए उपभोक्ता समझौतों का सहारा लेती है। उपभोक्ताओं को क्रेडिट कार्ड लेते समय इस पर हस्ताक्षर करने होते हैं। ऐसे में लोग इसे पढऩा भूल जाते हैं। इसमें लिखा रहता है कि कोई भी उपभोक्ता कोर्ट में मामला दाखिल करने के बाद निजी मध्यस्थता का सहारा ही लेगा। साथ ही यह आश्वासन भी लिया जाता है कि भी वह उपभोक्ता मामला दायर नहीं करेगा।

रोचक बात यह है कि ऐसी ही एक शर्त से जुड़ा मामला हाल में सामने आया है। यह एजेंसी कई बीमा कंपनियों से बड़ी संख्या में प्रोडक्ट्स के संबंध में ऐसे ही उपभोक्ता समझौतों की जांच कर रही है। उपभोक्ता समझौते इस तरह से बनाए गए हैं कि उपभोक्ता उन्हें पढ़ और समझ न सके। इसलिए यह अच्छा है कि कोई अन्य उनके लिए यह काम कर रहा है।

भारतीय बैंकों के उपभोक्ताओं के साथ समझौते भी ऐसे ही हैं जिसमें उपभोक्ताओं के प्रतिकूल प्रावधान हैं। उपभोक्ता इन समझौतों पर अपनी सहमति से दस्तखत करते हैं इसलिए नियामक इसे अपने हाथ में लेने से इन्कार कर सकता है। हालांकि वास्तविकता यह है कि जो लोग इन समझौतों का मसौदा तैयार करते हैं और जो उपभोक्ता इन पर दस्तखत करते हैं उनमें समय और संसाधनों की दृष्टि से जमीन आसमान का अंतर है।

अमेरिका में सीएफपीबी के प्रति वॉलस्ट्रीट की परेशानी साफ नजर आती है। इससे पता चलता है कि यह एजेंसी अपना काम अच्छी तरह कर रही है। भारत में भी क्षेत्र विशेष के नियामकों की कार्यप्रणाली में सुधार होने या न होने से अलग एक ऐसी समेकित एजेंसी की जरूरत है जो जांच परख कर सिर्फ उपभोक्ताओं के हित की बात करे।

धीरेंद्र कुमार


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