एएमएफआइ का अनुचित कदम
म्यूचुअल फंडों पर निवेशकों से खर्च के रूप में वसूले जाने वाले शुल्क में कटौती का दबाव है। वैसे, हाल ही में आया एक निर्देश फंड उद्योग पर प्रतिकूल असर डालने के साथ भारत में निवेश करने वाले फंडों के विकास के लिए हानिकारक साबित हो सकता है।
म्यूचुअल फंडों पर निवेशकों से खर्च के रूप में वसूले जाने वाले शुल्क में कटौती का दबाव है। वैसे, हाल ही में आया एक निर्देश फंड उद्योग पर प्रतिकूल असर डालने के साथ भारत में निवेश करने वाले फंडों के विकास के लिए हानिकारक साबित हो सकता है।
कुछ दिन पहले इंडस्ट्री की लॉबिंग बॉडी एसोसिएशन ऑफ म्यूचुअल फंड्स ऑफ इंडिया (एएमएफआइ) ने आंतरिक संचार में अपने सदस्यों (फंड कंपनियां) को कहा है कि वे फंड डिस्ट्रीब्यूटरों से उपभोक्ताओं पर बोझ डालने की बजाय अपने आप सर्विस टैक्स चुकाने के लिए दबाव बनाएं। सदस्यों के साथ किए गए पत्राचार में कहा गया, ‘म्यू्चुअल फंड उत्पादों के डिस्ट्रीब्यूशन पर सर्विस टैक्स के संबंध में स्पष्ट किया जाता है कि सर्विस टैक्स का बोझ सेवाएं प्रदान करने वाले डिस्ट्रीब्यूटर वहन करेंगे।’
यह कतई उचित नहीं है। और इसके लिए कोई एक कारण नहीं है। पहला, भारत में फंड खर्च निश्चित ही थोड़ा ज्यादा बढ़ रहे हैं और इन्हें नीचे लाया जाना चाहिए। मैं इस मुद्दे पर पहले ही लिख चुका हूं।
फिर भी याद दिलाने के लिए बता दूं कि अब तक क्या स्थिति रही है। बीते तीन साल में नियमन संबंधी कई बदलावों के चलते इक्विटी फंड निवेशकों की लागत अपने निवेश की तुलना में सालाना करीब तीन फीसद हो चुकी है। 2012 तक यह आंकड़ा 1.75 से 2.5 फीसद के बीच था। इसमें मैनेजमेंट फीस के लिए 1.25 फीसद की आंतरिक सीमा थी और बाकी वास्तविक खर्च थे। यदि वास्तविक खर्च कम होते तो फंड अपनी निर्धारित सीमा के भीतर होते। हालांकि, फंड इंडस्ट्री की मांगों को मानते हुए बाजार नियामक सेबी ने दोनों को एक ही सीमा में क्लब कर दिया। तभी से व्यावहारिक तौर पर प्रत्येक फंड उनके लिए उपलब्ध सीमा को छूने लगे।
हालांकि, वास्तविक खर्च जो निवेशकों से वसूला जाता है वह कहीं और भी ज्यादा होता है। इसका एक कारण सर्विस टैक्स में तेज बढ़ोतरी है। पूर्व में यह सिर्फ मैनेजमेंट फीस पर लिया जाता था और वह भी कुल लिमिट के भीतर रहता था। खर्चों के एक ही पूल में आ जाने से सर्विस टैक्स पूरी राशि पर वसूली योग्य हो गया। इस वित्त वर्ष से डिस्ट्रीब्यूटरों को दिया जाने वाला कमीशन भी सर्विस टैक्स के दायरे में आ गया।
अब, ज्यादा खर्चों को लेकर बढ़ती आलोचनाओं को देखते हुए ताजा कदम उठाया गया है जो मैंने ऊपर बताया है। सर्विस की प्रत्येक श्रेणी में ग्राहक अतिरिक्त सर्विस टैक्स का भुगतान करता है जो विक्रेता वसूलता है। इस सिद्धांत का पालन बीमा जैसी अन्य वित्तीय सेवाओं समेत दुनिया भर में होता है। वैसे, जो फंड करना चाहते हैं वह अनुचित है। एएमएफआइ खर्चों को सीमित करना चाहता है। उसकी इच्छा है कि डिस्ट्रीब्यूटर अपनी जेब से सर्विस टैक्स का भुगतान करें, जबकि उसके अपने सदस्ययानी फंड निवेशकों पर इस बोझ को डालना जारी रखें।
डिस्ट्रीब्यूटरों के खिलाफ यह भेदभाव हास्यास्पद है। निवेशकों से वसूले जाने वाले खर्चों में कटौती पूरी तरह से भ्रम में डालती है।
इसके अतिरिक्त जिस तरह से इंडस्ट्री लंबे समय तक काम करती रही है, मेरा संदेह है कि बैंक जैसे बड़े शक्तिशाली डिस्ट्रीब्यूटर वह हर चीज वसूल लेंगे जो वे सर्विस टैक्स के मोर्चे पर गंवाएंगे। वास्तव में इसकी असली चोट छोटे स्वतंत्र फाइनेंशियल एडवाइजरों (आइएफए) पर पड़ेगी। यह दुखद है क्योंकि इनमें से कई आइएफए की म्यू्चुअल फंड की पहुंच को विस्तार देने में अहम भूमिका रही है। बीते कुछ सालों में, उनका कारोबार लगातार अलाभकारी होता जा रहा है। कइयों ने तो कारोबार ही समेट लिया है।
सर्विस टैक्स पर ऐसे आइएफए को और सिकोड़ने का फंड इंडस्ट्री का कदम दूरदर्शी नहीं है और यह जल्दबाजी में लिया गया है। जब तक सेबी यह न मान ले कि आइएफए की कोई जरूरत नहीं है उसे एएमसी को ऐसा करने से रोकना चाहिए। निवेशकों से वसूले जाने खर्चों को सीमित किया जाना चाहिए, लेकिन वास्तविक खर्चों को काटकर इसे सीमित नहीं किया जाना चाहिए।
फंड का फंडा , धीरेंद्र कुमार