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बीमा सुधारों का विरोध

किसी न किसी तरह देर-सबेर बीमा कानून (संशोधन) विधेयक-2008 कानून बन जाएगा। अक्सर इस बिल को इतना अहम करार दिया जाता है कि यह पूरी आर्थिक सुधार प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी है।

By Edited By: Published: Sun, 21 Dec 2014 07:00 PM (IST)Updated: Mon, 22 Dec 2014 10:11 AM (IST)
बीमा सुधारों का विरोध

किसी न किसी तरह देर-सबेर बीमा कानून (संशोधन) विधेयक-2008 कानून बन जाएगा। अक्सर इस बिल को इतना अहम करार दिया जाता है कि यह पूरी आर्थिक सुधार प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी है। वास्तव में कई वर्षों से इस बिल का इस्तेमाल किसी सरकार की आर्थिक सुधारों के प्रति गंभीरता के आकलन के लिए एक कसौटी के तौर पर भी किया जाता है। इसका दूसरा पहलू यह है कि जो लोग आर्थिक सुधारों का विरोध करते हैं, उनके लिए बीमा विधेयक का प्रतिरोध करना एक परंपरा बन गई है।

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अक्सर इस विधेयक के विरोध का सटीक आधार नहीं दिया जाता। यह एफडीआइ विरोध के रूप में ही होता है। विरोध में इतना कहा जाता है कि यह एलआइसी के लाखों एजेंटों के हितों के विरुद्ध है। कई बार करोड़ों पॉलिसीधारकों के हितों का हवाला भी दिया जाता है। एफडीआइ से उनके हितों का किस तरह नुकसान होगा उसका ठीक ब्योरा नहीं दिया जाता है।


इस बहस का दूसरा पहलू यह है कि इन बीमा सुधारों की दलील स्पष्ट दी जाती है। पहली दलील, बीमा क्षेत्र के खुलने के एक दशक बाद भी तमाम भारतीयों को बीमा की सुरक्षा प्राप्त नहीं है। इस संबंध में अक्सर एक संख्या का उल्लेख किया जाता है वह है भारत का बीमा घनत्व। यह प्रति व्यक्ति प्रीमियम व जीडीपी-प्रीमियम अनुपात है। इन दोनों ही मापदंडों पर भारत वैश्विक औसत से नीचे है। यह न सिर्फ उद्योग जगत के अपने बयानों से बल्कि मीडिया की खबरों और इरडा की रिपोर्ट से स्पष्ट है। इरडा उद्योग के प्रदर्शन व संभावनाओं के आकलन के लिए बीमा पहुंच और बीमा घनत्व दो संकेतकों को आधार बनाता है।


दरअसल इसका मतलब है कि उद्योग व नियामक दोनों ही इस आधार पर सफलता का आकलन करते हैं कि बीमा कंपनी ने ग्राहकों से कितना पैसा लिया है बजाय इसके कि उन्होंने कितने लोगों को और कितना बीमा मुहैया कराया है। प्रीमियम भुगतान ऐसी चीज है, जिसे ग्राहक अदा करता है न कि ऐसी जो उसे मिलती हो। इसलिए ये आंकड़े इसके द्योतक नहीं है कि बीमा कराने वाले कितने लोगों को कितनी सुरक्षा मिली।

साफ शब्दों में कहें तो इस उद्योग का एकमात्र उद्देश्य लोगों को बीमा के रूप में सुरक्षा मुहैया कराना भर है। यानी जब एक ग्राहक की मृत्यु होती है तो उसके परिवार को कितना पैसा मिलता है? कंपनी के कितने ग्राहकों को बीमा कवर का लाभ मिला है? इसलिए प्रीमियम के आंकड़े आपको कुछ भी नहीं बताते, क्योंकि ग्राहक जो भुगतान करता है उसमें निवेश के साथ-साथ कमीशन और दूसरे चार्ज भी शामिल होते हैं।


मेरे ख्याल में इस सूचना की बेहद जरूरत है। कितने लोगों को वास्तविक रूप में कितना जीवन बीमा भुगतान किया गया है, इस संबंध में बीमा उद्योग जानकारी नहीं देगा। इस उद्योग में कमीशन और मुआवजे की ऐसी प्रकृति है कि बीमा कंपनियों व एजेंटों के लिए प्रीमियम की अधिकांश राशि को बीमा सुरक्षा से निवेश की तरह मोड़ने के लिए कई प्रोत्साहन मिलते हैं।


बीमा संशोधन विधेयक को भी सुधार के रूप में बेचा जा रहा है। इसमें ग्राहकों के हितों का मामूली ध्यान रखा गया है। तीन साल बाद किसी पॉलिसी को खत्म करने संबंधी प्रावधान ठीक हैं। इस तरह बीमा देते समय गुमराह करने पर जुर्माने की व्यवस्था भी ठीक है। लेकिन यह इस पर निर्भर करेगा कि इरडा इसका नियमन कितनी कड़ाई से करता है।


वास्तविकता यह है कि अधिक धनराशि आएगी। इससे बिक्री प्रक्रिया पर दवाब बढ़ेगा। बीमा की आड़ में निवेश उत्पादों के लिए अधिक प्रीमियम लिया जाएगा। देश के बीमा क्षेत्र की सफलता व विफलता के आकलन के लिए यह जानना जरूरी है कि कितने भारतीयों के पास वास्तविक व अर्थपूर्ण धनराशि का बीमा कवर है। यह जानने की बिल्कुल जरूरत नहीं है कि एजेंटों के जरिये कितना प्रीमियत एकत्रित किया गया है।


वास्तव में विदेशी स्वामित्व की सीमा बढ़ाने पर आपत्ति की कोई वजह नहीं है। हकीकत में मैं कहूंगा कि तत्काल इसे बढ़ाकर शत प्रतिशत कर दिया जाना चाहिए, ताकि जितनी जरूरत है उतना विदेशी निवेश आ सके। बस उद्योग का ध्यान इस ओर खींचने की जरूरत है कि ज्यादा से ज्यादा संख्या में लोगों को वास्तविक बीमा मुहैया कराया जाए।
फंड का फंडा, धीरेंद्र कुमार

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