नाजुक दौर से गुजर रही अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए कारगर साबित हो सकते हैं ये कदम
एक अध्ययन बताता है कि मांग में बढ़ोतरी और खपत को प्रोत्साहित करते हुए सरकार को रोजगार पैदा करने वालों के हाथाों में धन उपलब्ध करना चाहिए। जीएसटी का भुगतान संग्रह पर होना चाहिए न कि चालान पर। औसतन 15 फीसद अधिक तरलता प्रदान करनी चाहिए।
नई दिल्ली, डॉ. विकास सिंह। कोविड-19 महामारी ने हर किसी को प्रभावित किया है। लोगों का आत्मविश्वास गायब हो चुका है और उम्मीद टूटने लगी है। लॉकडाउन ने अर्थव्यवस्था में सिकुड़न पैदा करते हुए पांच साल की रफ्तार कम कर दी है। लोगों में डर है। फिलहाल अर्थव्यवस्था बढ़ती बेरोजगारी, घटती संपत्ति और खत्म होती बचत के दौर से गुजर रही है। इससे कई संकट पैदा हो गए हैं। मध्यम वर्ग को इसका सबसे ज्यादा खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। वेतन कम होता जा रहा है। यहां तक कि नौकरियां भी खत्म हो रही हैं और ये पहलू ही उनकी चिंता के अहम कारण हैं।
गरीब तो लगभग कंगाल होता जा रहा है। अधिकांश सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग यानी एमएसएमई संघर्ष कर रहे हैं, कई मैदान भी छोड़ चुके हैं। मध्यम आकार की कई कंपनियां रसातल में आ चुकी हैं। शीर्ष 1,000 कॉरपोरेट में 20 फीसद से भी ज्यादा ऐसे हैं, जिनके सामने महामारी के दौरान अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है। आपूर्ति पक्ष के प्रभाव भी प्रत्यक्ष दिखते हैं। आर्थिक गतिविधियां धीमी हो गई हैं, क्योंकि कारखाने और व्यापार बंद हो गए हैं। आवागमन पर प्रतिबंध के कारण आपूर्ति श्रृंखला बाधित है।
हालांकि, मांग पक्ष का प्रभाव बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है। नौकरी को लेकर अनिश्चितता और उपभोक्ताओं से सीधे जुड़े क्षेत्रों में घटती मांग ने अन्य क्षेत्रों को भी प्रभावित किया है। लॉकडाउन ने 70 फीसद विवेकाधीन खपत को विलंबित कर दिया है। यानी जो लोग खरीदारी की सोच रहे थे, उन्होंने विचार बदल लिए हैं। 20 फीसद खपत पूरी तरह प्रभावित हुई है। जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) को 10 फीसद नुकसान पहुंचाया है और इससे गरीबों की आय 35 फीसद प्रभावित हुई है। इसने अर्थव्यवस्था को संकुचित कर दिया है और यही मंदी के लिए 80 फीसद जिम्मेदार है।
नाजुक दौर से गुजर रही अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए केंद्र को निर्णायक व सशक्त मौद्रिक तथा राजकोषीय नीति को अमल में लाने की जरूरत है। निवेश को बढ़ावा देना होगा और खजाने को खोलना होगा। हालांकि, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने निराश किया है। वित्त मंत्री ने सस्ते लोन, टैक्स में कमी और ऋण ढांचे की पुन: संरचना जैसे उपाय अपनाए हैं, जबकि आवश्यकता मांग बढ़ाने, उपभोक्ता को तसल्ली देने और कमजोर व्यवसायों की ढाल बनने की थी। उन्हें इस बारे में बेहतर पता होना चाहिए कि कारोबारी धीमी अर्थव्यवस्था में निवेश नहीं करते।
बिक्री और खरीद से जुड़ी श्रृंखला प्रभावित हुई है। दूसरे शब्दों में कहें तो एक तरह से टूट गई है। नीति निर्माताओं को यह अच्छी तरह से याद रखना होगा कि जब कोई व्यक्ति एक दुकान पर जाता है और खरीदारी करता है तो वह खरीद और बिक्री की एक श्रृंखला शुरू करता है। यह श्रृंखला एक लाभकारी चक्र शुरू करती है, जिसमें कई मंच शामिल होते हैं। ये मंच खरीदार से निर्माता तक हर चरण में मूल्यवर्धन करते हैं। इस पर कई अन्य भी निर्भर होते हैं।
यह चक्र मांग और रोजगार पैदा करने के साथ आपूर्ति श्रृंखला से जुड़े हर व्यक्ति को लाभ प्रदान करता है। धन का लेनदेन, वस्तुओं का प्रवाह और इससे जुड़ा लाभ जीडीपी को बल देता है। लाभ अर्थव्यवस्था में वापस आता है, जिससे समग्र विकास होता है। वित्त मंत्री को वंचितों के बीच थोड़ी-थोड़ी राशि बांटने में नहीं फंसना चाहिए। यह अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता है।
हमें एक व्यापक और समग्र राजकोषीय प्रतिक्रिया की जरूरत है, जो राज्य व्यय के लिए निर्देशित हो। जो ग्रामीण बुनियादी ढांचे जैसे प्रभावी गुणकों पर ध्यान केंद्रित करे, जिससे नौकरियों और खपत को प्रोत्साहित किया जा सके। हमारे नीति निर्माताओं को नई बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को शुरू करने की गलती नहीं करनी चाहिए, बल्कि सारी ऊर्जा जारी परियोजनाओं को पूरा करने में लगा देनी चाहिए। पूर्ण परियोजनाएं आर्थिक गतिविधियों को शुरू करती हैं।
अमेरिका ने अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करने के लिए अपनी जीडीपी का 10 फीसद झोंक दिया है। भारत को भी कुछ ऐसा ही करने की जरूरत है। वित्त मंत्री तब तक वित्तीय रूप से ताकतवर नहीं हो सकतीं, जब तक कर संग्रह कम रहता है। भारत में गरीबों की संख्या ज्यादा है। इसलिए कॉरपोरेट कर में वृद्धि करनी होगी, ताकि खजाना समृद्ध हो सके। इसमें रिजर्व बैंक को भी भूमिका अदा करनी होगी।
हमारी राजकोषीय स्थिति अच्छी है, लेकिन हमें अधिक तेजी और सधे हुए तरीके से धन खर्च करने की जरूरत है। बड़े कॉरपोरेट की बजाय छोटे किसानों, व्यापारियों और एमएसएमई पर ध्यान केंद्रित करना होगा। ये हमारी अर्थव्यवस्था को न सिर्फ चलाते हैं, बल्कि रोजगार भी पैदा करते हैं।
एक अध्ययन बताता है कि मांग में बढ़ोतरी और खपत को प्रोत्साहित करते हुए सरकार को रोजगार पैदा करने वालों के हाथाों में धन उपलब्ध करना चाहिए। जीएसटी का भुगतान संग्रह पर होना चाहिए न कि चालान पर। औसतन 15 फीसद अधिक तरलता प्रदान करनी चाहिए। सरकारी संस्थानों को तीन लाख करोड़ रुपये एमएसएमई को जारी करने चाहिए जो कि उनका बकाया है। इससे आर्थिक विकास में तेजी आएगी। आपूर्ति पक्ष की बात करें तो ज्यादातर श्रमिकों को बहुत कम मजदूरी मिलती है। ये सहज उपलब्ध होते हैं। उन्हें आसानी से काम पर रखा जा सकता है। उनकी आजीविका अर्थव्यवस्था को गति दे सकती है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अनुकरणीय उदाहरण पेश करते हुए संकटकाल में मानव जीवन को प्राथमिकता दी है। वे जानते हैं कि खपत को नहीं बढ़ाया गया तो अर्थव्यवस्था सीधे तौर पर प्रभावित होगी और भविष्य की उम्मीदें भी धूमिल होंगी। उन्हें शीघ्र ही भविष्य को देखते हुए फैसले लेने चाहिए, ताकि बेरोजगार हो चुके नौकरी-पेशा व व्यवसाय बंद करने वालों पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव को कम किया जा सके। प्रधानमंत्री को कमजोर व्यवसायों को ढाल प्रदान करना चाहिए। साथ ही असंगठित क्षेत्र के लिए निरंतर तरलता और मुश्किल वक्त के लिए आय सुनिश्चित करनी चाहिए।