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'कोरोना से उत्पन्न परिस्थितियां बिल्कुल भिन्न, पूर्व के वित्तीय संकटों से तुलना बेमानी'

हकीकत यह है कि आज जो हो रहा है और हुआ है उसका 1989 1993 2001 और 2008 से कोई समानता नहीं है।

By Ankit KumarEdited By: Published: Sun, 12 Apr 2020 11:00 AM (IST)Updated: Sun, 12 Apr 2020 06:59 PM (IST)
'कोरोना से उत्पन्न परिस्थितियां बिल्कुल भिन्न, पूर्व के वित्तीय संकटों से तुलना बेमानी'
'कोरोना से उत्पन्न परिस्थितियां बिल्कुल भिन्न, पूर्व के वित्तीय संकटों से तुलना बेमानी'

नई दिल्ली, धीरेंद्र कुमार। अगर वक्त इतना मुश्किल और गंभीर नहीं होता तो ग्लोबल इकोनॉमी पर कोरोना महामारी के प्रभावों के बारे में आमतौर पर और निवेश समुदाय में खासतौर पर जिस तरह की भविष्यवाणियां की जा रही हैं, मैं उन पर जोर-जोर से हंसता। इन सभी भविष्यवाणियों की शुरुआत, जाहिर है, Goldman Sachs की तरफ से फरवरी मध्य के आसपास हुई थी, जब उसने कहा था कि वैश्विक विकास दर पर इस महामारी का ग्लोबल जीडीपी के सालाना औसत के 0.1 या 0.2 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होगा। इन भविष्यवक्ताओं का यह भी कहना था कि अगर परिस्थितियों में उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुए तो कोरोना वायरस का असर उन्हीं कंपनियों तक सीमित रहेगा जिनका चीन के बाजारों से बहुत ज्यादा लेनादेना है। और जैसे ही आप अपनी भविष्यवाणियों को अगर परिस्थितियों में उल्लेखनीय बदलाव नहीं हुए तो के घेरे में ले लेते हैं, आप पूरी तरह सुरक्षित हो जाते हैं।

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अगर परिस्थितियों में उल्लेखनीय बदलाव नहीं हुए तो के साथ आप कुछ भी भविष्यवाणी कर सकते हैं। और अगर आपकी भविष्यवाणी चुनौती देने लायक स्थिति में आ फंसती है तो आप आसानी से यह कहकर निकल सकते हैं कि परिस्थितियां बदल गईं।

आजकल विश्लेषकों का एक नया हुजूम सा उमर आया है जो पिछले कुछ दिनों समय के दौरान शेयर बाजारों के भरभराने में ऐसे संकेत खोज रहा है कि क्या बाजार निचले स्तर तक गिर चुके हैं या इनमें गिरावट अभी बाकी है। इन सबके बीच कुछ भविष्यवक्ता तो सबसे ज्यादा बेतुके नजर आते हैं। उनके सारे तर्कों का आधार इस तरह की बातों पर टिका होता है कि जब शेयर बाजार अपने शीर्ष से 25 प्रतिशत तक टूट जाएं तो मान लेना चाहिए कि गिरावट अपने चरम पर पहुंच चुकी है और अब खरीदारी का वक्त है।

लोग धड़ल्ले से ऐसी अतार्किक बातें लिख रहे हैं और सोशल मीडिया पर ऐसे लेखों की इस तरह बाढ़ सी आई हुई है कि लोग इन पर यकीन भी किए जा रहे हैं। आखिर इन बातों का आधार क्या है? मुझे लगता है कि वे अतीत में हुई ऐसी घटनाओं के औसत को अपना आधार बना रहे हैं। लेकिन आज की वास्तविक परिस्थितियों में उसका कोई मूल्य नहीं है। अतीत में शेयर बाजारों की इस हद तक गिरावट के पीछे जो वजहें रही होंगी, कतई जरूरी नहीं कि मौजूदा गिरावटों की जमीनी वजहों का उनसे कोई संबंध भी हो। जमीनी हकीकत यह है कि आज जो हो रहा है और हुआ है, उसका 1989, 1993, 2001 और 2008 से कोई समानता नहीं है। इन सभी वषों के दौरान बाजार की गिरावट की अलग-अलग कहानियां और कारण रहे हैं। हां, इतना जरूर है कि आप औसत का आकलन कर सकते हैं। लेकिन जिन परिस्थितियों से हम आजकल गुजर रहे हैं, उनमें किसी तरह की भविष्यवाणी के लिए औसत वाला यह उपकरण बेहद कमजोर है।

जो भी हो, 25 फीसद वाला यह सिद्धांत सिर्फ अभी ही नहीं, बल्कि बेहतरीन से बेहतरीन समय के लिए भी बेमतलब और अधकचरा ही है। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हो रही है। कुछ और बुनियादी तर्क खोजे जा रहे हैं और उन पर बहस हो रही है। ऐसा ही एक तर्क जीडीपी और कुल बाजार पूंजीकरण के अनुपात का है। यह तर्क कहता है कि जब यह अनुपात अपनी ही लंबी अवधि के औसत से कम हो, तो समझ लेना चाहिए कि बाजार में खरीदारी का मौका आ गया है। जाहिर है कि भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के ज्यादातर बाजार इस वक्त उस अनुपात पर अपनी लंबी अवधि के औसत से नीचे हैं। तो क्या इसका कोई मतलब है?

यहां सबसे ज्यादा समझने वाली बात यह है कि इस तरह के सभी सूचक मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर रहते हैं कि बाकी सभी चीजें एकसमान हों। यहां तक कि जीडीपी का आकलन भी इसी तरह की शर्त पर निर्भर करता है। ये सभी सूचक और संकेतक इस सिद्धांत पर टिके होते हैं कि अतीत और भविष्य में बदलाव के कोई बड़े कारक या बिंदु नहीं होते। लेकिन वर्तमान हालात में इस तरह के तर्क को आधार नहीं बनाया जा सकता है। हम एक बहुत बड़े बदलाव के बिंदु का सामना कर रहे हैं। यहां तक कि बदलाव का यह बिंदु इतना बड़ा हो सकता है कि जिस तरह के उठापटक हमने पिछले दिनों देखे हैं, वे असल में बहुत छोटे हों। और यह भी हो सकता है कि बदलाव इतने अलग हों कि हम सबकी भविष्यवाणियां और तर्क-वितर्क धरे रह जाएं।

अगर ऐसी कोई एक ऐसी चीज है जिसे मैंने अतीत और वर्तमान के बहुत से संकटों में प्रत्यक्ष महसूस किया है तो वह यह है कि भावना के आवेग में आकर लोग सिर्फ अतीत की घटनाओं को देखते हुए भविष्यवाणियां करते हैं। पिछले कुछ सप्ताह के दौरान हमने कोरोना महामारी के मामले में भी यही देखा है। फरवरी के मध्य में बहुत से लोग कह रहे थे कि इस समय तक आते-आते चीन में पांच करोड़ से अधिक लोग कोरोना-ग्रसित होंगे। महज एक महीने पहले तक टीवी चैनलों पर जिन्हें विशेषज्ञ बताया जा रहा था, वे जोर-शोर से कह रहे थे कि भारत में मई के अंत तक 40 करोड़ आबादी कोरोना ग्रसित हो जाएगी।

ये सभी वैसी भविष्यवाणियां थीं जो उन दिनों तक के ट्रेंड को देखते हुए की गई थीं। ये अनुमान इस तरह लगाए गए थे जैसे कि परिस्थितियों में बदलाव की दिशा में कोई कुछ करेगा ही नहीं। कई बार बिजनेस और इकोनॉमी के बारे में भी लोग इसी तरह के अनुमान लगाते दिखते हैं। इस समय अनिश्चित यह नहीं है कि इस महामारी का आर्थिक असर क्या होगा। अभी अनिश्चित यह है कि इस को बेअसर करने के लिए सरकार क्या कदम उठाती है। और वही सबसे महत्वपूर्ण कदम होंगे। हमने कोरोना के स्वास्थ्य प्रभावों के मामले में यही देखा है। इसलिए भविष्य कैसा होगा, इसके बारे में कोई भी अनुमान लगाने से पहले कई आंकड़ों पर विचार करना चाहिए।

पिछले कुछ समय के दौरान कोरोना और अर्थव्यवस्था पर उसके असर को लेकर जितनी और जिस तरह की भविष्यवाणियां हो चुकी हैं, उनमें से अधिकतर कुल मिलाकर हास्यास्पद हैं। इसकी वजह यह है कि हम अतीत के उदाहरणों को लेकर भविष्य का आकलन करते हैं, जबकि दोनों वक्त की परिस्थितियों में बड़ा अंतर होता है। अभी कुछ विशेषज्ञ शेयर बाजारों की दशा और दिशा की तुलना वर्ष 2008 से कर रहे हैं और उस हिसाब से अपने उपाय सुझा रहे हैं। हकीकत यह है कि दोनों परिस्थितियों में बड़ा अंतर है। कुछ ऐसी ही भविष्यवाणियां कोरोना और उसके आर्थिक असर को लेकर भी हो रही हैं। शायद यही वजह है कि दो महीने पहले कोरोना को लेकर जो अनुमान लगाए जा रहे थे, वे आज झूठे साबित हो रहे हैं।

(लेखक वैल्यू रिसर्च के सीईओ हैं और ये इनके निजी विचार हैं।)

 


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