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क्यों टेलीकॉम कंपनियों की हालत लगातार होती जा रही खराब, जानिए

अमेरिकी कहेंगे यह तो बुनियादी अर्थशास्त्र बेसिक इकोनॉमिक्स है। सच है कि यह बेसिक बात है। लेकिन फिर भी ज्यादातर लोग इसे समझ नहीं पाते हैं।

By NiteshEdited By: Published: Sun, 17 Nov 2019 10:35 AM (IST)Updated: Mon, 18 Nov 2019 10:40 AM (IST)
क्यों टेलीकॉम कंपनियों की हालत लगातार होती जा रही खराब, जानिए
क्यों टेलीकॉम कंपनियों की हालत लगातार होती जा रही खराब, जानिए

भारत में मोबाइल सेवाओं के बाजार की हालत लगातार खराब होती जा रही है ऐसे में एक कदम पीछे हटकर कुछ बुनियादी चीजों पर गौर करना फायदेमंद हो सकता है। मैं यह बात पूरी गंभीरता से कह रहा हूं। भारत में टेलीकॉम सर्विस पर ऊंची टैक्स दरों की वजह से ये सेवाएं कंपनियों के लिए आर्थिक तौर पर वहनीय नहीं रह गई हैं। कुछ सप्ताह पहले मैंने अपने कॉलम में लिखा था कि भारत में टेलीकॉम सेवाओं की बुरी हालत इसलिए है क्योंकि लाइसेंस फीस और स्पेक्ट्रम चार्जेज असल में सेवाओं का उपयोग करने वालों यानी आम ग्राहकों पर टैक्स की तरह हैं। टेलीकॉम कंपनियां लाइसेंस फीस और स्पेक्ट्रम चार्जेज के तौर पर जो रकम सरकार को चुकाती हैं वह रकम उनको यूजर्स से ही वसूल करना होता है। एक तरह से यह रकम टेलीकॉम कंपनियां एडवांस के तौर पर जमा कराती हैं। जब तक हम यह नहीं स्वीकार करेंगे कि यही टेलीकॉम सेक्टर की बदहाली की अहम और असल वजह है, तब तक समाधान का कोई रास्ता नजर नहीं आएगा। वास्तव में अगर भारत में अप्रत्यक्ष कर की मौजूदा प्रणाली का सही तरीके से पालन किया जाए, तो लाइसेंस फीस को जीएसटी के दायरे में शामिल कर लिया जाना चाहिए। एक तरह से देखें तो टेलीकॉम यूजर्स पर सेल्स टैक्स 50 फीसद से लेकर 100 फीसदी से भी अधिक है।

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मौजूदा समय में मोबाइल यूजर्स से जो कीमतें ली जा रही हैं और जितना टैक्स वसूला जा रहा है उसको अगर मिला दिया जाए तो ज्यादातर भारतीय ग्राहक मोबाइल सेवा लेने में खुद को असमर्थ पाएंगे। इस समीकरण के कुछ हिस्से को बदलना होगा। अगर टेलीकॉम सेवाओं की कीमत बढ़ाकर उस स्तर पर लाई जाए जहां से मोबाइल सेवा प्रदाता कंपनियां वित्तीय रूप से सक्षम हो सकें, तो मोबाइल फोन का बाजार बुरी तरह से सिकुड़ जाएगा। हो सकता है कि यह घटकर एक-चौथाई रह जाए। अगर टेलीकॉम सेक्टर को इससे बचाना है, तो फिर कुछ ऐसा होना चाहिए कि मोबाइल सेवाओं का इस्तेमाल करने वाला हर व्यक्ति इसकी पूरी लागत को वहन कर ले। ऐसे में टैक्स में बड़े पैमाने पर कटौती की जानी चाहिए।

हालांकि अगर हम इस मुद्दे को किनारे कर दें तो भी बुनियादी समस्या यह तय करना है कि विभिन्न उत्पादों और सेवाओं के बाजार का सही आकार क्या है। सिर्फ टेलीकॉम ही नहीं ज्यादातर वस्तुओं और खास कर टेक्नोलॉजी आधारित सेवाओं में हम यह भूल जाते हैं कि बाजार का आकार तय करने में उसकी कीमतों की सबसे अहम भूमिका होती है। भारत में मोबाइल सेवाओं के बाजार का आकार क्या है? सही मायने में मोबाइल सेवाओं के बाजार का आकार इस बात पर निर्भर करता है कि सेवाओं की कीमत 30 रुपये महीना है या 500 रुपये महीना। एक शहर में हर साल मझोले आकार के कितने अपार्टमेंट बेचे जा सकते हैं? यह इस बात पर निर्भर करेगा कि अपार्टमेंट की कीमत एक करोड़ रुपये है या तीन करोड़ रुपये। यानी कीमतें घटने बढ़ने से बाजार का आकार घटता या बढ़ता है।

अमेरिकी कहेंगे यह तो बुनियादी अर्थशास्त्र, बेसिक इकोनॉमिक्स है। सच है कि यह बेसिक बात है। लेकिन फिर भी ज्यादातर लोग इसे समझ नहीं पाते हैं। मुझे वास्तव में ऐसा लगता है कि कुछ कंपनियां इसे भूल गई हैं। मैंने एक छोटा सा प्रयोग किया। मैंने गूगल किया ‘बाजार का आकार कैसे तय करें’ और इसके बाद पहले पेज पर आए सारे नतीजों को पढ़ा। लेकिन मुङो यह जानकार झटका लगा कि किसी भी जवाब में कीमतों का जिक्र नहीं किया गया है। जवाब में तमाम चीजें बताई गई हैं। बाजार का आकार तय करने में कीमतों की भी कोई भूमिका है इसका जिक्र नहीं किया गया है। उस पहले सिद्धांत का क्या हुआ जो कहता है कि किसी चीज को खरीदने की इच्छा और क्षमता मांग तय करती है? हाईस्कूल का अर्थशास्त्र भी यही बताता है।

मुङो ऐसा लग रहा है कि कुछ कंपनियों को लगता है कि कीमतों को नजरअंदाज किया जा सकता है क्योंकि मुनाफे को भी नजरअंदाज किया जा सकता है। आज से 30-40 साल पहले जब नियंत्रित अर्थव्यवस्था का दौर था तो बाजार का आकार नई दिल्ली और मास्को जैसे शहरों के सरकारी कार्यालयों में तय किया जाता था और उसके बाद बजट आवंटित किया जाता था। वहीं आजकल बाजार का आकार वेंचर कैपिटल कंपनियां तय करती हैं और इसके बाद बजट का आवंटन किया जाता है। सॉफ्ट बैंक, सिक्वोया उनके द्वारा वित्त पोषित कंपनियों के फैसलों में मुक्त बाजार की बात बहुत कम है। यह कंपनियां भी उसी तरह से फैसले करती हैं जैसा 1970 के दशक में योजना आयोग करता था। आपको इसके बारे में सोचना होगा। अगर आप कोई चीज उसकी वास्तविक लागत से बहुत कम लागत पर वितरित कर रहे हैं तो आप उस चीज का बहुत बड़ा बाजार साबित कर सकते हैं। लेकिन यह बाजार का वास्?तविक आकार नहीं है। यह आकार भ्रामक है।

अगर ग्राहकों को पूरी लागत का भुगतान करना पड़े तो भारत में फूड डिलिवरी, डिजिटल वॉलेट और कैब सेवाओं के बाजार का आकार क्या होगा? इसका जवाब होगा कि यह कोई नहीं जानता है। अभी सेवाओं के बाजार का सही आकार पता नहीं चला है। यह तभी पता चलेगा जब इनके कारोबार में लगा पैसा खत्म हो जाएगा और कंपनियां हाथ खड़े कर देंगी। टेलीकॉम कंपनियों का कारोबार बहुत बड़ा है और इसमें बहुत ज्यादा पैसा लगा हुआ है इसके बावजूद पैसा खत्म हो चुका है। लेकिन बुनियादी सवाल अब भी वही है। अगर भारत में मोबाइल सेवाएं पूरी लागत और टैक्स के बोझ के साथ दी जाएं तो कितने भारतीय सेवाओं के लिए भुगतान करना चाहेंगे और भुगतान करने में सक्षम होंगे? भारत में पहली टेलीकॉम पॉलिसी 25 साल पहले घोषित की गई थी, लेकिन आज भी इसका जवाब कोई नहीं जानता है।

जब मैं यह कॉलम लिख रहा हूं, उसी समय वोडाफोन के सीईओ ने लंदन में कहा है कि उनकी कंपनी भारत से कारोबार बंद कर सकती है। भारत में वोडाफोन का घाटा बढ़ता जा रहा है। ऐसे में कंपनी भारत में अपने सारे असेट बेचकर देनदारियां चुकाना चाहती है। यह साफ है कि कुछ बड़ा बदलाव नहीं होता है तो वोडफोन के लिए यह सही कारोबारी फैसला होगा। यानी वोडफोन भी जल्द ही उन टेलीकॉम कंपनियों में शामिल हो सकती है जिनको भारत से अपना कारोबार समेटना पड़ा। इन कंपनियों में एटीएंडटी, टाटा टेलीनॉर, एयरसेल, आरकॉम, एमटीएस, डोकोमो और दूसरी कंपनियां शामिल हैं। थोड़ा जल्दी या देर से शायद एयरटेल भी बंद हो जाए। इसके बाद जियो या तो कीमतें बहुत ज्यादा बढ़ा देगी या वह भी बंद हो जाएगी।

लेखक-धीरेंद्र कुमार, सीईओ, वैल्यू रिसर्च 


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