बैंकों के फंसे कर्ज पर लगाम लगाने को तत्काल कदम उठाए केंद्र सरकार
संसदीय समिति की रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि निगरानी के मौजूदा तंत्र की समीक्षा होनी चाहिए
नई दिल्ली (बिजनेस डेस्क)। बैंकों के फंसे कर्ज यानी एनपीए की स्थिति चिंताजनक स्तर पर पहुंच गई है। एक संसदीय समिति ने निगरानी व्यवस्था मजबूत करने और स्ट्रेस्ड एसेट्स कम करने के लिए तत्काल कदम उठाने पर जोर दिया है। संसद की याचिका समिति का कहना है कि बैंकिंग व्यवस्था में निगरानी तंत्र होने के बावजूद एनपीए से जुड़ी धोखाधड़ी के मामले सामने आए हैं।
संसदीय समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार या रिजर्व बैंक (आरबीआइ) की ओर से महज गाइडलाइंस या एडवाइजरी जारी कर देने से धोखाधड़ी के मामलों पर असर पड़ता नहीं दिख रहा है। यह चिंताजनक है कि बैंकिंग नियामक की भूमिका निभाने वाला आरबीआइ अपने ही दिशानिर्देशों को लागू करवाने में विफल रहा है। समिति का मानना है कि सरकार को केंद्रीय बैंक पर दबाव डालना चाहिए कि वह नियमित अंतराल पर बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों को दिए जाने वाले निर्देशों के क्रियान्वयन की निगरानी करे।
रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि निगरानी के मौजूदा तंत्र की समीक्षा होनी चाहिए। जरूरत पड़ने पर इसमें संशोधन भी किया जाए। इस समय एक मजबूत निगरानी तंत्र स्थापित करने की जरूरत है। यह तंत्र ऐसा होना चाहिए जो अनियमितताओं, धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार जैसे मामलों पर लगाम लगाए। समिति ने एसबीआइ एक्ट समेत बैंकिंग कानूनों में बदलाव की सिफारिश भी की है। नए कानूनों में डिफॉल्टरों का नाम सार्वजनिक करने की व्यवस्था किए जाने की जरूरत भी जताई गई है। इस मामले में रिजर्व बैंक के रुख की भी समिति ने सराहना की है। केंद्रीय बैंक जानबूझकर कर्ज नहीं चुकाने वालों (विलफुल डिफॉल्टरों) का नाम उजागर किए जाने के पक्ष में है।
एजुकेशन लोन ने बढ़ाया एनपीए
बैंकों के लिए एजुकेशन लोन भी अब समस्या बनती जा रही है। गरीब मेधावी छात्रों की मदद के लिए बनाई गई यह व्यवस्था भी एनपीए के दलदल में फंस गई है। लोन डिफॉल्ट (कर्ज लौटाने में चूक) बढ़कर मार्च 2017 में कुल बकाए का 7.67 फीसद हो गया। यह आंकड़ा दो साल पहले 5.7 फीसद था।
भारतीय बैंक संघ के आंकड़े के अनुसार वित्त वर्ष 2016-17 के अंत में कुल शिक्षा कर्ज 67,678.5 करोड़ रुपये पहुंच गया। इसमें से 5,191.72 करोड़ रुपये एनपीए में तब्दील हो गया। कुल एजुकेशन लोन में एनपीए की हिस्सेदारी लगातार बढ़ रही है। यह आंकड़ा 2015-16 में बढ़कर 7.3 फीसद और 2016-17 में 7.67 फीसद पर पहुंच गया।