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ब्रोकर्स को मिले बेजा अधिकारों का नतीजा है कार्वी घोटाला

जब शेयर के असली मालिकों को पता चला कि उनके शेयर बेच दिए गए हैं तब सारा घपला सामने आया और इसमें लंबा समय लगा।

By NiteshEdited By: Published: Sun, 01 Dec 2019 02:00 PM (IST)Updated: Mon, 02 Dec 2019 08:42 AM (IST)
ब्रोकर्स को मिले बेजा अधिकारों का नतीजा है कार्वी घोटाला
ब्रोकर्स को मिले बेजा अधिकारों का नतीजा है कार्वी घोटाला

भारत में इक्विटी निवेश का मतलब है कि कंपनियों के बारे में ज्यादा से ज्यादा जांच-पड़ताल की जाए। लेकिन अब कार्वी ब्रोकिंग घपला सामने आने के बाद निवेशक के लिए यह जरूरी हो गया है कि वह न सिर्फ कंपनियों के बारे में अच्छी तरह से जांच पड़ताल करे, बल्कि अपने ब्रोकर पर भी नजर रखे। अपनी तमाम चिंताओं के साथ अब आपको इस बात की चिंता भी करनी चाहिए कि हो सकता है कि ब्रोकर आपके शेयर बेच ले और मिली रकम खुद रख ले। सेबी की जांच में जो बातें सामने आई हैं उनके मुताबिक कार्वी स्टॉक होल्डिंग ने अपने ग्राहकों के सैकड़ो करोड़ रुपये के शेयरों के साथ यही किया है। ग्राहकों के डिपॉजिटरी अकाउंट से शेयर ट्रांसफर किए गए, उन्हें बेचा गया और मिली रकम को कार्वी के रियल एस्टेट बिजनेस में ट्रांसफर कर दिया गया।

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सेबी की जांच में अब तक जो बातें सामने आई हैं, उसके हिसाब से यह बड़े पैमाने पर डकैती का मामला है। भारत के इक्विटी मार्केट में यह एक तरह से दुष्कर्म है, और अपनी तरह का सबसे बड़ा दुष्कर्म है। लेकिन इस घपले के बारे में सबसे ज्यादा परेशान करने वाली बात यह है कि इसे अंजाम देने वालों के पास यह गलत काम करने का अधिकार था। जब शेयर के असली मालिकों को पता चला कि उनके शेयर बेच दिए गए हैं, तब सारा घपला सामने आया और इसमें लंबा समय लगा। अजीब बात है कि इंडस्ट्री से जुड़े हर व्यक्ति के साथ-साथ नियामक ने भी ऐसे हालात को स्वीकार कर लिया है। आपके लिए ‘पावर ऑफ अटॉर्नी’ पर साइन किए बिना डीमैट अकाउंट खुलवाना और इक्विटी में निवेश करना असंभव है। आपको इसके लिए आपको अपने ब्रोकर को पावर ऑफ अटॉर्नी देनी ही होगी।

मैं आपको व्यक्तिगत अनुभव बता रहा हूं। कुछ साल पहले मैंने ऐसा ब्रोकरेज अकाउंट तलाशना शुरू किया जहां पावर ऑफ अटॉर्नी साइन करके ब्रोकर को नहीं देनी पड़े। काफी समय बर्बाद करने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि ऐसा अकाउंट पाना और इसे इस्तेमाल करना संभव नहीं है। समस्या की जड़ यही है। शेयरों में निवेश करने के लिए आपको अपने निवेश का नियंत्रण हर हाल में ब्रोकर को देना है।

शॉर्ट टर्म के लिए ट्रेडिंग करने वालों या मार्जिन पर ट्रेडिंग करने वालों के लिए यह व्यवस्था ठीक है, क्योंकि ब्रोकर को विशेष परिस्थितियों में आपकी मंजूरी के बिना निवेश बेचने की जरूरत पड़ सकती है। लेकिन सबके लिए यह व्यवस्था सही नहीं है। मेरी तरह बहुत से निवेशक पूरी रकम का भुगतान करके शेयर खरीदते हैं और महीनों या बरसों तक उसे होल्ड करते हैं। मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि ऐसे निवेशकों को अपने निवेश का पावर ऑफ अटॉर्नी अधिकार आखिर ब्रोकर को देना ही क्यों देना पड़ता है?

बहुत से निवेशक जिनको मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं और जो वैल्यू रिसर्च स्टॉक एडवाइजर का इस्तेमाल करते हैं, इसी कैटेगरी में आते हैं। सेबी को यह सुनिश्चित करने के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए कि ऐसे निवेशकों को निवेश पर अपना अधिकार ब्रोकर को नहीं देना पड़े। ब्रोकर्स के लिए ऐसे निवेशक बिजनेस के लिहाज से बेकार हैं क्योंकि वे बहुत कम या लगभग नहीं के बराबर ट्रेड करते हैं। नियामक की जिम्मेदारी है कि वे ऐसे निवेशकों के हितों का ध्यान रखे।

मेरे इस कॉलम का इससे पहले का संस्करण प्रकाशित होने के बाद मुङो कुछ लोगों के ई-मेल मिले। इन लोगों ने कहा कि मैं गलत हूं। उन्होंने विस्तार से समझाया कि कैसे सिस्टम के काम करने के तौर-तरीकों की गहरी जानकारी रखने वाला व्यक्ति चीजों को सेट करके ब्रोकर को पॉवर ऑफ अटार्नी दिए बिना ही इक्विटी में ट्रेड कर सकता है। इससे मेरी ही बात साबित होती है। एक नए निवेशक को यह सुविधा तो अपने आप मिलनी चाहिए। उसे इसके लिए प्रयास क्यों करना पड़े।

कार्वी घपले को लेकर सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि जरूरी नहीं कि कार्वी अकेली ऐसी कंपनी हो जहां पर यह घपला हुआ है। इस तरह की अवैध गतिविधियां करना संभव है। ऐसे में ऐसी किसी और कंपनी में भी छोटे या बड़े पैमाने पर यह अवैध काम हो रहा होगा। ग्राहकों के शेयर का अस्थायी इस्तेमाल बहुत आम है। ऐसे में दूसरों की रकम का इस्तेमाल कर सकने की काबिलियत एक बड़ा लालच है और इस लालच से बचना आसान नहीं है।

अभी सबसे अहम बात है कि इस मामले का समाधान तेजी से किया जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि निवेशकों को जल्द से जल्द उनका पैसा वापस मिले। निवेशक इस भरोसे के साथ इक्विटी में निवेश करते हैं कि उनके निवेश की कीमत का चाहे जो हो, लेकिन जरूरत पड़ने पर कभी भी वे अपना निवेश बेचकर रकम निकाल सकते हैं। इस बात को सुनिश्चित करने के लिए नियम कानून भी हैं। हालांकि कार्वी का मामला नियामकीय ढांचे के लिए एक कड़ी परीक्षा की तरह है। इस समस्या के समाधान का नियामक का तरीका ही यह साबित करेगा कि मौजूदा नियामकीय ढांचा इस तरह की अवैध गतिविधियों को रोकने और ऐसे मामलों में निवेशकों के हितों को सुरक्षित रखने में सक्षम है या नहीं।

निवेशकों को उनकी रकम वापस मिले, यह बात काफी अहम है। लेकिन इस मामले के जरिये इंडस्ट्री के लिए एक उदाहरण स्थापित करना भी उतना ही जरूरी है। संकट का दौर हमेशा एक अवसर लेकर भी आता है। इस मामले में कड़े कदम उठाकर जिम्मेदार लोगों को इस तरह से दंडित किया जाए कि भविष्य में कोई और ऐसा कदम उठाने का दुस्साहस नहीं कर सके। अगर ऐसा नहीं होता है तो इसे सिस्टम को साफ करने का मौका गंवाना माना जाएगा।

कार्वी घोटाले ने निवेशक और ब्रोकर के रिश्ते की बुनियाद को हिलाकर रख दिया है। इसने निवेशकों को साफ संकेत दिया है कि निवेश के लिए चुनी जाने वाली कंपनियों पर ही नजर रखना काफी नहीं, ब्रोकर के चाल-चरित्र पर भी नजर रखनी पड़ेगी। इक्विटी में खुदरा निवेशकों की भागीदारी के मामले में भारत एक नए मोड़ पर खड़ा है। सरकार की ओर से ऐसे निवेशकों की भागीदारी बढ़ाने के जितने उपाय किए जा रहे हैं, उसे देखते हुए बेहद जरूरी है कि नियामक इस मामले को सख्ती से निपटाए। अगर इस वक्त सख्ती नहीं हुई और ऐसे मामलों के अंत की पटकथा नहीं लिखी गई, तो माना जाएगा कि सेक्टर को चुस्त-दुरुस्त करने का एक बेहतरीन मौका नियामक ने यूं ही गंवा दिया है।

धीरेंद्र कुमार, सीईओ, वैल्यू रिसर्च 


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