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नगर निकायों का हाल: सुधारों की जगह दशकों पुराने ढर्रे पर हो रहा काम, भविष्य के लिए तैयार शहर बनाने की चुनौती

चुनौती भविष्य के लिए तैयार शहर बनाने की है और स्थिति यह है कि देश के ज्यादातर शहरी स्थानीय निकाय 50 वर्ष पुराने तौर-तरीकों पर ही जमे हुए हैं। फिर भी कुछ मामले ऐसे हैं जो बाकी निकायों को राह दिखाते हैं।

By Jagran NewsEdited By: Amit SinghPublished: Thu, 30 Mar 2023 11:15 PM (IST)Updated: Thu, 30 Mar 2023 11:15 PM (IST)
नगर निकायों का हाल: सुधारों की जगह दशकों पुराने ढर्रे पर हो रहा काम, भविष्य के लिए तैयार शहर बनाने की चुनौती
सुधारों की जगह दशकों पुराने ढर्रे पर हो रहा काम

मनीष तिवारी, नई दिल्ली: चुनौती भविष्य के लिए तैयार शहर बनाने की है और स्थिति यह है कि देश के ज्यादातर शहरी स्थानीय निकाय 50 वर्ष पुराने तौर-तरीकों पर ही जमे हुए हैं। फिर भी कुछ मामले ऐसे हैं जो बाकी निकायों को राह दिखाते हैं।

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- संपत्तियों की पहचान, आकलन और बिलिंग के लिए रायपुर नगर निगम में 2017-18 तक मैनुअल सिस्टम था। संपत्ति कर का कवरेज कम था, बिलिंग देर से होती थी और लीकेज भी था। 2019 में निगम ने शहरी कार्य मंत्रालय के सहयोग से जियोग्राफिक इन्फारमेशन सिस्टम (जीआइएस) आधारित साफ्टवेयर विकसित किया। बाहरी एजेंसी की मदद से निगम ने ड्रोन इमेजिंग से शहर का जीआइएस मैप तैयार किया, मोबाइल एप के साथ डोर टू डोर सर्वे हुआ और एक डिजिटल प्रापर्टी रजिस्टर बना।

नतीजा- केवल अगले ही साल संपत्ति कर के दायरे में 54,000 मकान जुड़ गए। 41 करोड़ की अतिरिक्त आमदनी हुई, पिछले साल से 74 प्रतिशत ज्यादा।

- आंध्र में पांच साल पहले सभी नगर निगमों में कई तरह के बिल जारी किए जाते थे। टैक्स दायरे में कितनी संपत्तियां हैं, कर कितना है, संग्रह कितना है और बकाया कितना, इसका कोई एक डाटा नहीं था। आंध्र सरकार ने प्रापर्टी टैक्स के रिकार्ड को डिजिटाइज करने की पहल की।

नतीजा- कवरेज 25 प्रतिशत और संग्रह 30 प्रतिशत बढ़ गया। छह बिल खत्म हुए और केवल एक बिल बचा। राजस्व में बढ़ोतरी हुई 111 प्रतिशत।

- रांची नगर निगम का रोना था कि जिस रफ्तार से संपत्तियां बढ़ रही हैं, उस हिसाब से स्टाफ नहीं है। कर संग्रह 15 से 24 प्रतिशत था। आठ साल पहले रांची नगर निगम ने कर संग्रह की जिम्मेदारी टेंडर के बाद एक निजी एजेंसी को सौंप दी। उसे नई-पुरानी संपत्तियों की पहचान, बिलिंग और कर संग्रह का जिम्मा दिया गया।

नतीजा- केवल तीन साल के भीतर संपत्ति कर चार गुना बढ़ गया। पहले 96,000 संपत्तियां कर दायरे में थीं और अब लगभग पौने दो लाख।

- पंजाब में शहरी स्थानीय निकायों का डाटा बेस किसी अन्य सेवा के डाटा बेस से नहीं जुड़ा था। एक पायलट प्रोजेक्ट के रूप में दो जिलों- खन्ना और होशियारपुर में संपत्ति कर के रिकार्ड को बिजली के मीटरों से जोड़ा गया। इससे पंजाब म्युनिसिपल इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलेपमेंट लिमिटेड को इन जिलों में संपत्ति कर का दायरा बढ़ाने में मदद मिल रही है। इसे अन्य शहरों में भी लागू किया जा रहा है।

संपत्ति कर में सुधार को लेकर अगर-मगर कर रहे राज्यों के लिए ये उदाहरण सबक हैं कि निकाय अपनी माली हालत सुधार सकते हैं। ये मामले केवल संपत्ति कर के दायरे और वसूली तंत्र को तकनीक के सहारे बेहतर बनाने के हैं। कर बढ़ाना राजनीतिक रूप से कठिन हो सकता है, लेकिन वे संपत्ति कर का पूरा पैसा भी जमा नहीं करवा पा रहे हैं।

पूरे देश के निकायों में संपत्ति कर का संग्रह 25 से 45 प्रतिशत है। वजह यह है कि लगभग 80 प्रतिशत निकायों में संपत्ति कर की वसूली के पांचों चक्र- संपत्तियों की गणना, कीमत निर्धारण, कर आकलन, बिल व संग्रह और डाटा तैयार करने का काम दशकों पुराने ढर्रे पर चल रहा है।

शहरी कार्य मंत्रालय ने एक सलाहकार समूह की सिफारिशों के अनुरूप स्थानीय निकायों के लिए जीआइएस आधारित प्रापर्टी रजिस्टर जरूरी माना है। एक अध्ययन के मुताबिक, ड्रोन इमेजिंग से हाई रिजाल्यूशन वाली मैपिंग का खर्च प्रति वर्ग किलोमीटर 10 से 12 हजार रुपये है। इससे फील्ड सर्वे की जरूरत लगभग खत्म हो जाती है, लेकिन देश में अभी कुछ सौ निकाय ही इसका इस्तेमाल कर रहे हैं।

अपनी जिम्मेदारी नहीं समझ रहे निकाय: रामचंद्रन

आवासन और शहरी कार्य मंत्रालय के सचिव रहे एम. रामचंद्रन के अनुसार, निकाय कर ढांचा सुधारने में ढीले हैं और वे लोगों को सेवाएं भी नहीं दे पा रहे हैं। इन दोनों में संतुलन जरूरी है। जब तक लोग सुविधा महसूस नहीं करेंगे, तब तक उन्हें टैक्स गैरजरूरी लगेगा। यह निकायों की जवाबदेही का सवाल है। उन्हें 'फंड नहीं है' वाला शिकायती रवैया त्यागकर अपनी भूमिका समझनी होगी, तकनीक का इस्तेमाल करके पूरा कर संग्रह करना होगा।

रामचंद्रन का कहना है कि शहरी विकास की तमाम योजनाएं लगभग डेढ़ दशक से नगर निकायों में सुधार से लिंक की जा रही हैं, लेकिन बात बन नहीं रही। 2023-24 से तो सुधारों के बिना केंद्रीय फंडिंग पूरी तरह रोकने की बात है। इसलिए राज्य सरकारों के पास अब टालमटोल की ज्यादा गुंजाइश नहीं रह गई है।

 


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