ऊर्जित पटेल ठुकरा सकते हैं RBI बोर्ड का सुझाव
जहां तक रिजर्व के इस्तेमाल की बात है तो आरबीआइ के सभी गवर्नरों ने इस बारे मे पूर्व समितियों के सुझावों को भी नहीं माना है।
नई दिल्ली (जयप्रकाश रंजन)। केंद्र सरकार की तरफ से नामित सदस्य और आरबीआइ निदेशक बोर्ड के अन्य सदस्य गवर्नर ऊर्जित पटेल पर नीतियों को बदलने का दबाव तो बना सकते हैं लेकिन उन्हें अपनी बात मानने के लिए बाध्य नहीं कर सकते।
जिस तरह से आरबीआइ गवर्नर मौद्रिक नीति तय करने के लिए गठित समिति की बात मानने के लिए बाध्य नहीं है वैसे ही वह आरबीआइ के निदेशक बोर्ड की तमाम सुझावों को सुन कर भी उन्हें अनसुना कर सकता है। जहां तक रिजर्व के इस्तेमाल की बात है तो आरबीआइ के सभी गवर्नरों ने इस बारे मे पूर्व समितियों के सुझावों को भी नहीं माना है।
सरकार और आरबीआइ के बीच के मौजूदा विवाद के पीछे दो सबसे अहम वजहें हैं। इसमें एक है आरबीआइ के पास पड़ा हुआ अतिरिक्त फंड। मौजूदा नियम के मुताबिक आरबीआइ अपनी कुल परिसंपत्तियों का 27 फीसद बतौर रिजर्व रख सकता है। मोटे तौर पर अभी आरबीआइ के पास इस मद में 9.59 लाख करोड़ रुपये का रिजर्व है।
सरकार चाहती है कि इसके एक हिस्से का उपयोग देश के विकास कार्यो के लिए किया जाए। इस बारे में आरबीआइ के निदेशक बोर्ड में सबसे ज्यादा समय तक रहने वाले विशेषज्ञ वाइ एच मालेगम की अध्यक्षता में एक समिति बनी थी।
वर्ष 2013-14 में इस समिति की रिपोर्ट में कहा गया था कि केंद्रीय बैंक के पास इतनी ज्यादा रिजर्व के तौर पर राशि रखने की जरुरत नहीं है। तब समिति ने 1.4 लाख करोड़ रुपये की राशि सरकार को हस्तांतरित करने का सुझाव दिया था। लेकिन उसके बाद आरबीआइ में तीन गवर्नर बने लेकिन किसी ने भी इस सुझाव को स्वीकार नहीं किया।
आरबीआइ के फंड के इस्तेमाल का सबसे पहला प्रस्ताव पूर्व एनडीए के कार्यकाल में आया था। जब एक लाख करोड़ रुपये का एक विशेष फंड सड़क व अन्य ढांचागत क्षेत्र के विकास के लिए बनाने का प्रस्ताव आया था। बाद में विदेशी मुद्रा भंडार के एक हिस्से के इस्तेमाल की बात भी की गई थी लेकिन किसी भी आरबीआइ गवर्नर ने इसे खास तवज्जो नहीं दी।
पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमणियन ने वर्ष 2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण में फिर से इस मुद्दे को छेड़ा था। उन्होंने लिखा था कि आरबीआइ के रिजर्व से चार लाख करोड़ रुपये की राशि का इस्तेमाल सरकारी बैंकों के पूंजी आधार को मजबूत बनाने के लिए किया जा सकता है। लेकिन पूर्व आरबीआइ गवर्नर रघुराम राजन और मौजूदा गवर्नर इस सुझाव को लेकर कभी उत्साहित नहीं रहे।
आरबीआइ व सरकार के बीच दूसरा मुद्दा लाभांश को लेकर है। सरकार आरबीआइ की तरफ से दी जाने वाली लाभांश की राशि को तय करने के मौजूदा फार्मूले को भी बदलना चाहती है ताकि ज्यादा लाभांश लिया जा सके।