tarkeshkumarojha
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पिछले दो दशकों में देश – दुनिया और समाज इतनी तेजी से बदला कि पुरानी पीढ़ी के लिए सामंजस्य बैठाना मुश्किल हो रहा है। इसी विडंबना पर पेश है खांटी खड़गपुरिया तारकेश कुमार ओझा की चंद लाइनें ….
बुलाती है गलियों की यादें मगर,
अब अपनेपन से कोई नहीं बुलाता।
इमारतें तो बुलंद हैं अब भी लेकिन,
छत पर सोने को कोई बिस्तर नहीं लगाता।
बेरौनक नहीं है चौक-चौराहे
पर अब कहां लगता है दोस्तों का जमावड़ा।
मिलते-मिलाते तो कई हैं मगर
हाथ के साथ दिल भी मिले, इतना कोई नहीं भाता।
पीपल-बरगद की छांव पूर्व सी शीतल
मगर अब इनके नीचे कोई नहीं सुस्ताता।
घनी हो रही शहर की आबादी
लेकिन महज कुशल क्षेम जानने को
अब कोई नहीं पुकारता
– लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं। संपर्कः 9434453934, 9635221463
डिस्क्लेमर : उपरोक्त विचारों के लिए लेखक स्वयं उत्तरदायी हैं। जागरण डॉट कॉम किसी भी दावे या आंकड़े की पुष्टि नहीं करता है।
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