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क्या मीडिया जिसकी मौत को ब्रेकिंग या लीड बनाकर दिखायेगा तभी हम जानेंगे कि किसी बड़ी हस्ती ने दुनिया छोड़ दी ? अगले दिन अखबार हम क्या इसीलिए खरीदने जाएंगे कि ’देखते हैं, जो सज्जन चल बसे हैं, वे पूरे जीवन में क्या ’गुल’ खिलाये हैं ? यदि ऐसा है तो हम कुछ अलग टाइप के स्वार्थी हैं, पिछले दिन एक मशहूर पर कंगाल कलाकार की मौत पर पूरे देश में लगभग यही तसवीर सामने आई। बुजुर्ग अभिनेता के किरदारों में लोकप्रियता की तह तक गये ए.के. हंगल लंबे समय से बीमारी के ’थिएटर’ में जीवन जीने की ’एक्टिंग’ कर रहे थे। हममें से अधिकतर लोग उनके इस डायलाॅग ’इतना सन्नाटा क्यूं है भाई’ को याद कर कर के आसपड़ोस-मित्रों से चर्चालाप में लगे थे। हां कुछ अभिनय व थिएटर प्रेमियों ने शाम को कुछ मोमबत्तियों जलाकर उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थनाएं ज़रूर कीं, पर बतौर ऐ.के. हंगल मैं सोचता हूूं कि वे ’महान’ लोग तब कहां थे, जब उनके पास इलाज के पैसे नहीं थे, आमदनी का ज़रिया नहीं था। क्या अभिनय जगत इतना लाचार और भिखमंगा हो गया था कि हजारों-करोड़ों में खेलने के बावजूद भी वह इस ’हंगल-सुदामा’ के लिए कृष्ण का किरदार नहीं निभा पाया। तारे-सितारे, निर्माता-निर्देशक जो आज ट्वीट कर शोक जता रहे हैं, उनमें से एकाध को छोड़कर कोई उनसे मिलने तक नहीं गया। हमारी फिल्म इंडस्ट्री छोटे-बड़े कलाकारों को सिर्फ एवार्ड फंक्शन में बुलाकर लकडि़यों के प्रतीक चिन्ह ही बांट सकती है जिसके बदले मेें कोई बीमार कलाकार एक ’डिस्प्रिन’ भी ना ले सके।
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