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जब हमने शान-ओ-शौकत व देखदेखी में दिए लेना कम कर ही दिया तो दीपावाली का नया नामकरण कर इसे ’विद्युतावली’ क्यूं ना कहें ….. ?
झुग्गी-झोंपडि़यों से लेकर हवेलियांे में रोशन दिए-मोमबत्तियां उस दिव्य त्यौहार की पहचान होते थे जिसे आज के बिजली-युग में भी हम दीपावली के नाम से जानते हैं। दीपावली का सीधा सा अर्थ है ’दीपों की कतार’। आधुनिकता पुराने फार्मूले को नये तरीके से गढ़ने में विश्वास रखती है, फिर उसके रास्ते में चाहे परम्पराओं के कंकड़ आएं या रीति-रिवाजों के ’खतरनाक मोड़’।
जिन दियों को, त्यौहार के नाम तक में शामिल कर लिया गया उनके व्यापारी आज भी फुटपाथों पर अपनी रोजी सजाते हैं। मोलभाव से जूझने की इन्हें आदत हो चुकी है, इनकी एक आंख गा्रहक तलाशती है, दूसरी पुलिस व निगम की गाडि़यां ताकती है। अखबार की सुर्खियों, खबरिया चैनलों में भले ही एंकर महोदय शहरों में चुस्त पुलिस व्यवस्था की चंद झलकियां दिखाने लगते हों पर भीतरखाने में यह ’चुस्त-व्यवस्था’ वसूली की दस्तक ही होती है।
बाज़ार के गिलयारे बिजली लडि़यों, झूमरों, आदि से भर जाते हैं। चाइनीज़ लडि़यों की टिमटिमाती रोशनी, झूमर में झलकती शान उच्च वर्ग से लेकर सामान्य मध्यमवर्ग तक को खूब सुहाती है। इस माॅडर्न दीपावली के बाद कुछेक झूमर-लडि़यां बेचने वाले व्यापारियों की दुकानों में कांच व एसी जड़ जाते हैं, पर दियों के कलाकारों के कच्चे घर में मुश्किल से त्रिपाल की जगह टिन-शेड ही सेट हो पाता है। जो इन्हें बरसात-ठंड और इनकी रचनाओं को ’सामाजिक बहिष्कार’ से बचाता है।
दस रूपये के पच्चीस दिये बेच रहा लगभग दस वर्ष का लड़का हर ग्राहक में अपने दाता को ढूंढ रहा था। यदि आप कुछ ज्यादा मात्रा में दिए लेने आये हैं तो डिस्काउंट की उम्मीद भी उससे कर सकते हैं। उसने इन मिटटी की मजबूरियों को महीनों बेमौसम बरसात से बचाकर तो रख लिया था पर लडि़यों-झूमरों की चकाचैंध के सामने इनकी चमक-रोशनी फीकी पड़ गई थी।
जब इतना कुछ बदला है तो इस त्यौहार का नाम दीपावली से बदलकर ’विद्युतावली’ क्यूं ना रख दिया जाये। हो सकता है कुछ दिएप्रेेमी ’ब्लैक’ में दिए मंगवाने लग जाएं जिससे थोड़ी ही सही पर कुम्हारों की बस्तियां चमक उठें।
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