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बिहार: यहां दिवाली मनाने की अजीब है परंपरा, लक्ष्मी पूजन या आतिशबाजी नहीं करते लोग

बिहार के पश्चिम चंपारण जिले में थारू समाज के लोग आज भी अपनी परंपरा का निर्वहण करते हुए दिवाली में ना तो आतिशबाजी करते हैं और ना ही लक्ष्मी पूजा करते हैं। जानिए कैसे करते हैं पूजा..

By Kajal KumariEdited By: Published: Sat, 26 Oct 2019 03:44 PM (IST)Updated: Sat, 26 Oct 2019 05:26 PM (IST)
बिहार: यहां दिवाली मनाने की अजीब है परंपरा, लक्ष्मी पूजन या आतिशबाजी नहीं करते लोग
बिहार: यहां दिवाली मनाने की अजीब है परंपरा, लक्ष्मी पूजन या आतिशबाजी नहीं करते लोग

पश्चिम चंपारण [सौरभ कुमार]। पर्यावरण की रक्षा के लिए संकल्पित और सदियों पुरानी अपनी संस्कृति से बेहद लगाव। यही वजह है कि थारू जनजाति के लोग दीपावली के बदले दो दिवसीय दीवारी मनाते हैं। वे न तो लक्ष्मी की पूजा करते और न ही आतिशबाजी। ये खुद उपजाए अन्न से भोजन बनाते, इसके उपरांत प्रकृति की पूजा करते हैं। 

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पश्चिम चंपारण के बगहा दो, रामनगर और गौनाहा के 199 गांवों में तकरीबन दो लाख 50 हजार थारू जनजाति के लोग रहते हैं। दीवारी इनका दो दिवसीय त्योहार है। पहले दिन अन्न, जल व अग्निदेव की पूजा होती है। इस दिन पूर्वजों की तेरहवीं करते हैं।

यह जनजाति अपने मृत परिजनों की याद में पुतला बनाकर पूजा-अर्चना कर श्रद्धांजलि देती है। इसके बाद बड़ी रोटी अर्थात खाने का कार्यक्रम होता है। इसमें नमक छोड़कर बाकी सभी सामग्री की व्यवस्था ये अपने खेत से पैदा अन्न से करते हैं। इसमें सिर्फ निकट संबंधियों सहित परिवार के लोग ही शामिल होते हैं।

इस दिन के लिए महिलाएं खुद मिट्टी के दीये बनाती हैं। ये दीये रसोईघर, कुआं, चापाकल और मंदिर में जलाए जाते हैं, ताकि प्रकृति की देवी प्रसन्न रहें। घर में अन्न की कोई कमी न रहे। पशुओं की सेवा के बाद उन्हें प्रसाद खिलाया जाता है। अंत में दहरचंडी (अग्निदेव) के समक्ष दीया जलाकर गांव की सुरक्षा की मन्नत मांगी जाती है। 

दूसरे दिन सोहराई पर करते मांस-मछली का सेवन : दूसरे दिन सोहराई होता है। मांस और मदिरा के सेवन की परंपरा है। लेकिन, शराबबंदी के बाद सिर्फ मांस और मछली का भोज ही होता है। उमा प्रसाद, हेमराज पटवारी, राजकुमार महतो और महेश्वर काजी बताते हैं कि सोहराई के दिन हर घर में मांस-मछली और गोजा, पिट्ठा बनाने का रिवाज है।

इस दिन सूअर को लाल अबीर से रंगकर भैंसों से उसका शिकार कराया जाता है। इसके लिए भैंसों के सींग को विशेष रूप से सजाया जाता है। सूअर को मारकर प्रसाद के रूप में पूरे गांव में बांटा जाता है। यह प्रथा आज भी थरूहट के वनवर्ती इलाकों में जीवंत है। हालांकि, वन विभाग के अड़ंगे से कई गांवों में यह प्रथा बंद हो चुकी है। 

भारतीय थारू कल्याण महासंघ के अध्यक्ष दीपनारायण प्रसाद की मानें तो संचार क्रांति के साथ ही पाश्चात्य सभ्यता का असर तो पड़ा है, लेकिन हम अपनी संस्कृति बचाए हुए हैं। रीति-रिवाजों का पालन करते हैं। 


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