कैंपस के हालात में राजनीतिक दल तलाश रहे स्वार्थ
बीआरएबीयू के सभी कॉलेजों में इन दिनों छात्रसंघ चुनाव की धूम मची है। सभी महाविद्यालयों में चुनाव की प्रक्रिया जारी है।
बेतिया। बीआरएबीयू के सभी कॉलेजों में इन दिनों छात्रसंघ चुनाव की धूम मची है। सभी महाविद्यालयों में चुनाव की प्रक्रिया जारी है। हैरत यह कि लोकतांत्रिक प्रणाली की यह प्राथमिक पाठशाला वर्षों से अस्तित्व में है, लेकिन परिपक्वता का स्तर बेहतर नहीं हो पाया। आज छात्रसंघ चुनावों की आड़ में कैंपस से लेकर सड़कों तक सिवाय हंगामे और हुल्लड़ के कुछ भी नजर नहीं आ रहा। लोकतंत्र की पाठशाला का यह हश्र देखकर ¨चता की नहीं, ¨चतन की जरूरत है। छात्रसंघ चुनावों के इतिहास को टटोलें तो इसका लक्ष्य उच्च आदर्शों वाले नेतृत्व का विकास था। आधुनिक लोकतंत्र का इतिहास भले ही करीब तीन सौ साल पुराना हो, लेकिन छात्रसंघ चुनावों का इतिहास 115 साल का है। पहले पहल अमेरिका की मिन्नेसेटा विश्वविद्यालय में छात्रसंघ का गठन किया गया था। तब पहले चुनाव के दौरान प्रत्याशियों के मध्य बहस-मुबाहिसों का दौर शुरू किया गया। यह दौर आज भी दुनियाभर के विश्वविद्यालयों में जारी है। भारत में भी जेएनयू इसका जीता जागता उदाहरण है। छात्र हितों के साथ ही समसामयिक मुद्दों पर प्रत्याशी अपने छात्रों के साथ विचार विनिमय करते हैं। अफसोस, यह परंपरा देश के चंद विश्वविद्यालयों को छोड़कर अन्य में शुरू नहीं हो पाई। सवाल यह है कि इसका कारण क्या है। इसका कारण हम वर्तमान राजनीतिक परि²श्य और कैंपस के हालात और राजनीतिक दलों के स्वार्थ में तलाश सकते हैं। कैंपस में वैचारिक संघर्ष का स्थान बाहुबल ने ले लिया है। छात्र नेता राजनीतिक दलों की कठपुतलियों के रूप में काम कर रहे हैं और राजनीतिक आका उनके जरिये अपना स्वार्थ साधने में लगे हैं। बेतिया के महाविद्यालयों में भी यही ²श्य देखने को मिल रहे हैं। अखाड़ों में तब्दील महाविद्यालय के परिसरों को देखकर लगता ही नहीं कि यहां बुद्धिजीवी लोगों की संगत में सुनहरे भविष्य की राह गढ़ रही पीढ़ी चुनाव में शिरकत कर रही है। ऐसे में राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है, क्योंकि छात्र राजनीति में ज्यादातर वर्चस्व इन्हीं के आनुषांगिक संगठनों का है। इसके अलावा सरकार का भी दायित्व है कि चुनाव पूरी तरह शांतिपूर्ण और तय नियमों के अनुसार हों। छात्रसंघ चुनावों के लिए बनी ¨लगदोह समिति की सिफारिशों पर सख्ती से अमल करने की जरूरत है। सवाल यही है कि राजनीति की नर्सरी में कैसी पौध तैयार हो, यह तय करना हम सब की जिम्मेदारी है।