कुड़िया कोठी में बापू की यादें आज भी ¨जदा
कुड़िया कोठी में बापू की यादें आज भी ¨जदा हैं।
बेतिया। कुड़िया कोठी में बापू की यादें आज भी ¨जदा हैं। 26 अप्रैल 1917 को सुबह आठ बजे बापू रामनवमी बाबू के साथ हाथी पर सवार होकर ¨सगाछा पर गए थे। इसी क्रम में उन्होंने कुड़िया कोठी में कई घंटों तक रहकर पीड़ित किसानों की पीड़ा से रूबरू हुए। वहां पर दो पीड़ित महिलाओं से मुलाकात की तथा नील की खेती की तहकीकात की। आखिर यहां ठहरे भी तो कैसे नहीं चंपारण के किसान राजकुमार शुक्ल का दर्द भरा खत उन्हें द्रवित कर दिया था। जिसमें श्री शुक्ल ने कहा था कि दो गांवों में मेरा मकान है। पहला शिकारपुर थाना के मुरली भरवा जो रामनगर राज का एक गांव है। इसे बेलवा फैक्ट्री के अंग्रेजी हुकमराम एमन ने पट्टे पर लिया है। जबकि मेरा पुस्तैनी घर सतवरिया में है। सतवरिया में 1500 रुपये तथा कवरिया में 60 रुपए की मेरी महाजनी है। पहले तीन-चार वर्षों के लिए मैं महरानी जानकी कुअंर की बगान महाल में मोहरीर था। इस जिला के करीब 70 फैक्ट्रियों से मैं वाकिफ हूं। पूरा जिला इन्हीं फैक्ट्री के अधीन है। फैक्ट्रियों का काफी जुल्म है। रईयत काफी तकलीफ में है। नीलेहे साहेबों ने तीन कट्ठीया प्रथा के अंतर्गत नील, जई, गन्ना उपजाने के लिए बाध्य कर जुर्माना, औवाध, हुंड़ा वसूल कर तथा बलामश्रम कराकर रईयतों को बर्बाद कर दिया है। साठी फैक्ट्री नील उत्पादन करता है। फैक्ट्री के आदेश का विरोध करने पर धोबी, लोहार, बढ़ई को इस रईयत का काम करने से रोक दिया जाता है। इन्हें आग या पानी भी लेने से रोक दिया जाता है। रईयतों के मवेशी को चरागाहा व चरने पर भी रोक है। रईयतों को मारा पीटा जाता है। घर के आगे एवं पीछे खाई बना दिया जाता है। फैक्ट्री वाले गोयड़ा की जमीन को ही नील खेती के लिए चुन रहे है। फैक्ट्री का आदेश प्रति बिघा किसानों को 18 से 20 रुपए देना है, पर बीमारी का बहाना बना कर 10 रुपया प्रति विघा किसानों को मिल रहा है। साठी के पश्चिम हिक्षोपाल गांव के लोगों को गांव छोड़ना पड़ा है। पूरे गांव की जमीन साठी फैक्ट्री की जिरात हो गई। मौजा- रायबरवा गांव में सुंदर खान तथा गुलाब खान की सात विघा जमीन में नील की खेती नहीं करने के कारण इन्हें मुकदमा में फंसा दिया गया। चनपटिया की फैक्ट्री की शाखा सैयदपुर फैक्ट्री शिकारपुर थाना के कई गांव के लोगों को परती जमीन में बसने को बाध्य कर दिया। करीब 200 परिवार नेपाल की तराई में जा कर बस गया। फैक्ट्री के अत्याचार से बाध्य होकर 1904 में रईयतों ने लाट साहब को आवेदन दिया। इसका परिणाम यह निकला की रोड, बांध, नहर को सरकार ने बंद कर दिया। यहां बपही पुतही, घोड़ही, भैंसही बंगलही, हकमल बना, फगुहही, हबही या मोटरही, हकफर्खवान, बैठबेगारी, हकजुर्माना आदि वसूल कर कर किसानों की कर तोड़ दी जा रही है। इसके अतिरिक्त 1914 में सरकार ने एक नहर खुदवाई जिसका प्रति विघा पांच कर चुकाना पड़ रहा है। पत्र के बाद भी किसानों को कहीं से कोई राहत नहीं मिली। तब पंडित राज कुमार शुक्ल ने 6 अप्रैल 1915 को छापरा में आयोजित प्रांतीय अधिवेशन में यह मामला उठाया। वहां भी कुछ नहीं हुआ। तब शुक्ल 1916 में लखनऊ कांग्रेस में जाकर चम्पारण के अत्याचार का मामला उठाया तथा उसके समर्थन में प्रस्ताव भी पास कराना चाहा। अंग्रेजी हुकूत अमन साहब को इन सारी गतिविधियों की जानकारी मिल गई। 3 फरवरी 1917 को बगहा के कल्कटर ने पइन खर्च नहीं वसूलने का आदेश दिया, पर फैक्ट्री के विरोध में आवाज उठाने वाले अमलवा के संत राउत का घर लूटवा दिया गया। ¨सकदर धोबी तथा संत राउत को झूठे मुकदमा में फंसा दिया गया। इसके डर सारे किसान पईन खर्च देने लगे। श्री शुक्ल का घर और बखारी लूट लिया गया। किवाड़ दरवाजा निकाल लिया गया। इस सारी पीड़ाओं को सुन कर महात्मा गांधी चम्पारण पहुंचे जहां उनकी आत्मा द्रवित हो गई तथा चम्पारण में सत्याग्रह आंदोलन का शंखनाद हो गया। कुड़िया कोठी अंग्रेजी हुकूमत का कोठी था। जहां से चम्पारण के किसानों की शोषण का रणनीति बनाया जाता था। महात्मा गांधी के यहां पहुंचने मात्र से ही किसानों की आधी डर समाप्त हो गई। शेष चम्पारण सत्याग्रह के बाद समाप्त हो गई। आज यहां गांधी से जुड़े जानकारियों को अंकित कर एक शिलापट्ट राष्ट्रपिता की यहां मौजूदगी को बयान कर रही है, जबकि यहां कोठी का अवशेष भी नहीं रहा।