शाम होते मनमोहक हो जाती सोनपुर मेले की रंगीनियां
वैशाली। शाम ढलते ही सोनपुर विश्वविख्यात हरिहर क्षेत्र मेले की रंगीनियां मनभावन हो जाती है।
वैशाली। शाम ढलते ही सोनपुर विश्वविख्यात हरिहर क्षेत्र मेले की रंगीनियां मनभावन हो जाती है। दुधिया एवं रंग-बिरंगी रौशनी में नहाये मेला को देखने वालों को देश के किसी मेट्रोपॉलिटन सिटी का एहसास कराता है। कई प्रमुख स्थलों पर लगाया गया हाई मास्ट लाइट से दूर-दूर तक फैलती रोशनी मेले की शोभा और बढ़ा देती है। मेला का प्रवेश द्वार माने जाने वाले गज-ग्राह चौक पर भगवान श्री हरि विष्णु के साथ गज-ग्राह की प्रतिमा को रंग-बिरंगी झालड़ों से मेला को लेकर विशेष रूप से सजाया गया है।
मेले की हृदयस्थली माने-जाने वाले नखास का तो क्या कहना ? जैसे-जैसे शाम रात में तब्दील होती है, वैसे ही सरकारी, गैर-सरकारी प्रदर्शनियों के साथ कृषि प्रदर्शनी और थियेटरों की जगमग रौशनी देखने वालों को बरबस अपनी ओर आकर्षित करता है। यहां से आगे बढ़ते ही वूलेन वस्त्रों का बाजार शुरू होता है। इन वूलने वस्त्रों की दुकानों में व्यवसायियों ने अपने-अपने ढंग से रोशनी का प्रबंध किया हुआ है। ड्रोलिया चौक और मीना बाजार होते बाबा हरिहरनाथ मंदिर दर्शकों के विशेष आकर्षण केंद्र में है। शाम में यहां एक तरफ बाबा हरिहरनाथ की विशेष सजावट प्रतिदिन की जा रही है, वहीं मेला को लेकर मंदिर और यात्री निवास सहित प्रवेश द्वार को इस तरह सजाया गया है कि रात्रि बेला में देश के तिरूपति, वैष्णो देवी, महाकालेश्वर एवं महाराष्ट्र के सिद्धि विनायक मंदिर का अहसास कराता है। एक तरफ जहां मेले में सुबह होते ही दियारा क्षेत्र के गंगा उस पार के छितरचक, रमसापुर, गड़ी पट्टी तथा नकटा दियारा आदि गावों के तीर्थ यात्री मोटर चालित बड़े-बड़े नावों से गंगा-गंडक के रास्ते काली घाट पहुंचकर धर्म-कर्म की प्रक्रिया पूरा करने के बाद मेला का आनंद उठाते हैं। वहीं सारण के गोपालगंज, सिवान, छपरा तथा वैशाली एवं मुजफ्फपुर व सीतामढ़ी आदि जगहों से मेला भ्रमण करने आए लोगों का सड़क पर तांता लग जाता है। पुरानी गंडक पुल पर यात्रियों की भीड़ से रह-रहकर जाम की समस्या उत्पन्न हो जाती है। ये ग्रामीण इलाकों के लोग होते हैं। जिनका मेला सूर्यास्त के पहले तक समाप्त हो जाता है। गोधूली की बेला में ही ये लोग अपने-अपने घरों के लिए वापस लौट जाते हैं।
शाम होते ही 7 बजे के बाद मेले में आने वालों की वेशभूषा बदली होती है। अधिकांश इसमें या तो स्थानीय लोग होते हैं अथवा थियेटरों के दर्शक। इस वर्ष मेले में पिछले सारे रिकार्ड को ध्वस्त करते हुए सर्वाधिक 11 थियेटर लगाए गए हैं। अगर किसी दर्शक को पता बताना हो कि मैं यहां खड़ा हूं तो उसे ढूंढ़ने वाला ढ़ूढ़ते रह जाएगा। चूंकि एक ही नाम के अनेक थियेटर हैं। एक तरफ गुलाब थियेटर और न्यू गुलाब तो दूसरी ओर शोभा सम्राट ऐसे नाम इस बार लगभग सभी थियेटरों ने रखे हैं। एक जमान की मशहूर पद्मश्री गुलाब बाई को भला कौन भूल सकता है? ऐसी ही एक कलाकार थी शोभा। इन विख्यात नामों को आज 30-40 वर्ष बीत जाने के बाद भी अपने व्यवसाय को लोग भुनाने में लोग गुरेज नहीं कर रहे हैं। संचालकों को भरोसा है इसे सुप्रसिद्ध नाम दर्शकों की भीड़ को उनकी टिकट खिड़कियों तक खींच लाएंगी। मेले में भोर का दृश्य कुछ और ही होता है। जैसे ही थियेटरों का कार्यक्रम बंद होता है कि दर्शकों की भीड़ सड़कों पर उमड़ पड़ती है। ठंड से ठिठुरते लोग कहीं चाय की चुस्कियों से ठंड भगाने का प्रयास कर रहे होते हैं तो कुछ लोग नखास के चौराहे पर बेचे जा रहे जौनपुरी हलवा-पराठा के निकट जमे होते हैं। दातून वालों की भी इस समय अनेक दुकानें सजी होती हैं। इस समय चालक बीच मेले में टेंपू खड़ा कर पटना-पटना चिल्लाते रहते हैं।