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मृत्युंजय शिव तत्व की महिमा अपरंपार : आचार्य

संवाद सूत्र करजाईन बाजार(सुपौल) श्रावण मास भगवान शिव को अत्यंत प्रिय है। ऐसे में धर्मशास्त्र एव

By JagranEdited By: Published: Tue, 27 Jul 2021 12:05 AM (IST)Updated: Tue, 27 Jul 2021 12:05 AM (IST)
मृत्युंजय शिव तत्व की महिमा अपरंपार : आचार्य
मृत्युंजय शिव तत्व की महिमा अपरंपार : आचार्य

संवाद सूत्र, करजाईन बाजार(सुपौल): श्रावण मास भगवान शिव को अत्यंत प्रिय है। ऐसे में धर्मशास्त्र एवं वैदिक ग्रंथों के अनुसार मृत्युंजय शिव की साधना उपासना एवं स्वरूप के बारे में अति रहस्यमय तत्व का ज्ञान जरूरी है। शास्त्रों में साफ-साफ लिखा गया है कि जिन्होंने मृत्यु पर जय प्राप्त किया है वही मृत्युंजय हैं। मृत्युंजय का स्वरूप जानने के लिए पहले मृत्युंजय और तत्व किसे कहते हैं यह जान लेना परम आवश्यक है। सावन की पहली सोमवारी पर शिवभक्तों को मृत्युंजय तत्व का रहस्य बताते हुए आचार्य पंडित धर्मेंद्र नाथ मिश्र ने बताया कि मनुष्य की आयु समाप्त हो जाने पर शरीर जब आत्मा को परित्याग कर देती है और मानव शरीर जब चेतना विहीन जीवात्मा पुराने शरीर को त्याग कर नवीन शरीर धारण करती है एवं मानव शरीर से प्राण का अंत हो जाना मृत्यु कहलाता है। प्रत्येक प्राणी अपने-अपने जीवनकाल में किए गए कार्यों के अनुरूप ही अमृतत्व को प्राप्त करता है। आचार्य ने शिव के ध्यान पर भी प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि ‌र्त्यंबक शिव आठ भुजा से युक्त हैं उनके एक हाथ में अक्षय माला और दूसरे हाथ में मृग मुद्रा और दो हाथों से दो कलश में अमृतरस लेकर उससे अपने मस्तक को सिचित करते हैं। दो हाथों से उन्हीं कलश को थामे हुए हैं। शेष दो हाथ उन्होंने अंक पर छोड़ रखे हैं और उनमें दो अमृत से पूर्ण घट हैं एवं श्वेत पदम कमल पर विराजमान हैं। साथ ही मुकुट पर बाल चंद्रमा विराजमान है तथा ललाट पर त्रिनेत्र शोभायमान हैं। इस प्रकार के विशिष्ट मृत्युंजय ध्यान स्वरूप के भाव को सदा ही प्रत्येक प्राणी को धारण करना चाहिए ऊपर जो दोनों प्रकार की अमृतवाणी कही गई है उन दोनों के भगवान शिव शंकर अधिकारी है। अर्थात शिव अपने भक्तों को प्रसन्न होकर यह दोनों वर दे सकते हैं। अमृत पुण्य दो कलश धारण करने का अर्थ यह है की भगवान शिव को कभी भी अमृत का कमी नहीं रहता है। दो अमृत कलश से अपने मस्तक पर सिचन करने का रहस्य है कि मृत्युंजय शिव सदा ही अमृत में सरावोर रहते हैं। अज्ञान युक्त देहादी प्रकृति के परावर्तन के साथ-साथ में भी परिवर्तन ही करता आ रहा हूं। इस प्रकार का ज्ञान ही अज्ञान है और अज्ञान मुक्त परिवर्तन का नाम ही मृत्यु है और इससे विपरीत ज्ञान ही अमृत तत्व है यही रहस्य वास्तविक में मृत्युंजय स्वरूप तथा मृत्युंजय तत्व है।

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