दीपावली की तैयारी में जुटे लोग, बनाए जा रहे मिट्टी के दीये
विश्वविद्यालय में खेल का माहौल बना है और हमारी राष्ट्रीय पहचान बन रही है। उक्त बातें प्रति कुलपति डॉ. फारूक अली ने कही। वे अनूप लाल यादव महाविद्यालय में आयोजित पुरुष-महिला कुश्ती प्रतियोगिता के उद्घाटन पश्चात बोल रहे थे। प्रति कुलपति ने कहा कि विश्वविद्यालय खेल के प्रति सजग है। खेल से भाईचारा बढ़ता है। बीएनएमयू के विद्यार्थियों में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है।
संवाद सूत्र, किशनपुर(सुपौल): दीपावली सिर्फ एक पारंपरिक त्योहार न रहकर आधुनिकता के रंग में रंग चुका है। दीपों का स्थान इलेक्ट्रिक झालरों ने भले ही ले लिया हो लेकिन मिट्टी के दीया का अपना अलग ही महत्व है। दीपावली में अब दस दिन शेष रह गए हैं दीपों की मांग को देखते हुए कुम्हार जोर-शोर से दीप बनाने में जुटे हैं। समय की मांग के मुताबिक आज भले ही बाजार में तरह-तरह के दीये आ गए हों मगर मिट्टी के दीपों का महत्व कम नहीं हुआ है। हर शुभ काम में इसका प्रयोग किया जाता है। मिट्टी के दीप सहित तरह तरह के बर्तन बनाने के पुस्तैनी व्यवसाय से जुड़े कुम्हारों का कहना है कि वे पिछले कई सालों से पीढ़ी दर पीढ़ी मिट्टी के बर्तन बनाते रहे हैं। हां यह सच है कि आधुनिकता व चाइनीज लाइटों ने दीपों की मांग को कम किया है। लेकिन इसका धार्मिक महत्व आज भी कम नहीं हुआ है। सिगियावन के छोटेलाल पंडित, लड्डू लाल पंडित आदि बताते हैं कि दीपों को बनाने में कड़ी मेहनत लगती है। पूरा दिन मिट्टी तैयार करने में लग जाता है मिट्टी को छानने उसे तपाने और बनाने से लेकर सुखाने में कई दिन लगते हैं। तब दीये तैयार होते हैं। एक दिन में छह सौ से हजार दिए गढ़े जाते हैं दस से बीस हजार दीये जमा हो जाने पर अलाव लगाया जाता है। दीये पकाने के लिए जलावन की आवश्यकता होती है और उसके लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है।