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जहां तकदीर ही काली है वहां कैसी दिवाली है

सुपौल। एक वो दिवाली थी एक ये दिवाली है, क्या दीप जलाएं हम तकदीर ही काली है। कोसी का कोप झ्

By JagranEdited By: Published: Mon, 05 Nov 2018 12:01 AM (IST)Updated: Mon, 05 Nov 2018 12:01 AM (IST)
जहां तकदीर ही काली है वहां कैसी दिवाली है
जहां तकदीर ही काली है वहां कैसी दिवाली है

सुपौल। एक वो दिवाली थी एक ये दिवाली है, क्या दीप जलाएं हम तकदीर ही काली है। कोसी का कोप झेल रहे लोगों की तो यही कहानी है। एक तो जब तटबंध निर्माण के समय उनके घर दोनों तटबंध के बीच पड़ गए, जीवन में अंधियारा तो वहीं से शुरु हो गया। और जब कोसी की कृपा²ष्टि उनके गांव पर पड़ गई, कोसी ने उसी गांव से अपना रास्ता तय कर लिया उनकी तो दुनियां ही उजड़ गई। यह कहानी किसी व्यक्ति विशेष अथवा गांव की नहीं। इसकी तो लंबी फेहरिस्त बनती जा रही है। वर्षों से पुनर्वास की आस में सैकड़ों परिवार या तो तटबंध के किनारे या फिर यत्र-तत्र बसे हुए हैं। उनकी विपदा खत्म होने का नाम नहीं ले रही। कोसी के कोप के अलावा जब गाईड बांध का निर्माण कराया जाने लगा तो बनैनियां पूरा गांव ही कोसी की मुख्य धारा में आ गया। 2010 में बलथरवा पर भी कोसी की कु²ष्टि पड़ गई। फिर क्या था गांव छोड़ना तो मजबूरी बन गई और कल तक खुशहाल रहने वाले किसान रोटी के मोहताज हो गए। बनैनियां के वकील राम, रामचंद्र मंडल, जुगाय यादव, श्याम भारती, बलथरवा के बेचन सरदार की माने तो जब तकदीर ही काली है तो फिर दिवाली कैसी। कहते हैं कि इसी दिवाली की तैयारी धूमधाम से हुआ करती थी। उक फेरने को ले अपना पटसन, अपना सबकुछ, अन्न-धन-लक्ष्मी की पूजा तन मन धन से हुआ करती थी। दिवाली के बाद गोव‌र्द्धन पूजा जिसमें पशुओं को लेकर तरह-तरह की तैयारी की जाती थी। क्या जमाना था लेकिन अब तो ये सब कहानी में सिमट गई है। बच्चे सपना देख रहे कि अपना घर होगा फिर अपनी दिवाली होगी।

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मझारी लो बांध, किशनपुर के पूर्वी तटबंध के किनारे आदि स्थानों पर बसे विस्थापित दिवाली में कहां करेंगे अन्न, धन, लक्ष्मी को घर, घर तो है ही नहीं। पर्व-त्योहार के मौके पर जब इन्हें अपने गांव की याद आती है तो मन मसोस कर रह जाते हैं।

किशनपुर प्रखंड मुख्यालय से छह किलोमीटर पश्चिम कोसी नदी के पूर्वी तटबंध के किनारे शरण लेने को विवश इन परिवारों को कई बार सरकारी स्तर पर आवास उपलब्ध कराने का आश्वासन दिया गया। इनके पुनर्वास के लिए इंतजाम करने की घोषणा भी की गई लेकिन कई वर्ष बीत जाने के बाद भी विस्थापितों को बसने के लिए ठिकाना नहीं मिल सका। मुख्य तटबंध से लेकर आसपास के इलाकों में बसे आधा दर्जन पंचायतों के इन लोगों पर भी कभी लक्ष्मी की कृपा बरसती थी लेकिन 1980 के आसपास जब कोसी नाराज हुई तो दरिद्रता से पाला पड़ गया। यहां की आठ पंचायत नौवाबाखर, दुबियाही, परसामाधो, मौजहा, बौरहा, किशनपुर उत्तर, किशनपुर दक्षिण, शिवपुरी एवं कदमपुरा कटहारा पर कोसी की नजरें टेढ़ी होती रहती है लिहाजा कई गांव के अस्तित्व पर भी खतरा बन गया है और उन गांवों के लोग तटबंध किनारे शरण लिए हुए हैं। उधर कोसी तटबंध के अंदर निर्मली अनुमंडल के विस्थापित मझारी लो बांध पर शरण लिए हुए हैं। कोसी को साल दर साल झेलते आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं रह गई है कि दूसरी जगह आशियाना बसा लें। बहरहाल दिवाली को उम्मीदों के दीये से सजाने के अलावा इनके पास कोई चारा भी नहीं है।


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