कभी बड़ी रेल लाइन का सपना तो कभी लंबी दूरी की गाड़ियों का सपना
सरकार ने दाखिल-खारिज के वादों को समय सीमा के अंदर निष्पादन के लिए इसे आरटीपीएस में शामिल किया ताकि लोगों को इसके लिए ज्यादा परेशानी नहीं उठानी पड़े। लेकिन अंचलाधिकारी की उदासीनता कहिए या कर्मियों की मनमानी जनता को इसका समुचित लाभ नहीं मिल पा रहा है। वर्तमान में ऐसे सैकड़ों मामले हैं जो निर्धारित समय सीमा खत्म होने के बाद भी कई महीनों से लंबित पड़े हैं।
सुपौल। कोसी में रेल कोसी वासियों के लिए हमेशा सपनों का ही खेल बना रहा। कभी बड़ी रेल लाइन का सपना तो कभी लंबी दूरी की गाड़ियों का सपना, कभी कोसी के दुर्गम इलाके में रेल के दौड़ने का सपना तो कभी प्रस्तावित नई परियोजनाओं के कार्यान्वयन का सपना। पीढ़ी दर पीढ़ी गुजर गई सपना पूरा न हो सका। यातायात सहित कई मामलों में सदैव पिछड़ा रहा यह कोसी का इलाका रेलवे के मामले में हमेशा से उपेक्षित रहा है। अंग्रेज जमाने का ट्रैक व छंटी हुई बोगियां ही इस रेलखंड की पहचान रही। कभी इस रेलखंड को मुख्य धारा से जुड़ने का सौभाग्य प्राप्त न हो सका, न ही यहां के लोगों को कभी लंबी दूरी की गाड़ियों की कोई सुविधा ही नसीब हो पाई। जब पूरे देश में आमान परिवर्तन की लहर चली फिर भी अछूता रह गया था यह इलाका।
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अधूरा है काम, अटकी है परियोजना दस वर्ष गुजरने के बाद ही सही कोसी पर पुल निर्माण का कार्य पूरा कर लिया गया। लेकिन ट्रैक लगाये जाने अथवा अन्य कार्य आज भी लटका पड़ा है। 6 जून 2003 को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी द्वारा 365 करोड़ की परियोजना कोसी पर रेल महासेतु की नींव रखी गई। कुछ दोष लोहे का तो कुछ लुहार का। शुरुआती दौर में कोसी ने भी कार्य में व्यवधान उत्पन्न किया तो विभाग की भी सुस्ती ही दिखाई पड़ी। समय बीतता गया और कार्य की प्रगति धीमी रही। वर्ष 2009 में तांतिया नामक कंपनी ने 39 पाया ढ़ालकर एक फेज का काम पूरा कर दिया। जीपीटी इन्फ्रा प्रोजेक्ट लिमिटेड नामक कंपनी ने गार्टर का काम पूरा कर दिया। बांकी की गति मंद पड़ गई। मुआवजे को ले फंसा पेंच भी इसकी गति में बाधक रहा है। रुकी परिवर्तन की गति 20 जनवरी 2012 से रेलखंड के आधे हिस्से राघोपुर-फारबिसगंज के बीच मेगा ब्लाक कर दिया। हठात ऐसा लगा कि अब कोसी के इलाके के भी दिन बहुरेंगे और रेलवे के मामले में यह पिछड़ा इलाका जल्द ही देश के अन्य भागों से जुड़ जायेगा। लेकिन परिवर्तन की गति इतनी धीमी पड़ गई कि अभी सुपौल तक ही रेल का परिचालन संभव हो सका है। सुपौल से आगे सरायगढ़ स्टेशन तक तो कार्य की गति ठीकठाक चल रही है लेकिन सरायगढ़ से आगे का कार्य तो आज भी शिथिल पड़ा हुआ है। 2004 में पड़ी थी परिवर्तन की नींव
बाजपेयी सरकार के रेलमंत्री नीतीश कुमार, रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाडीज, खाद्य आपूर्ति मंत्री शरद यादव फरवरी 2004 को सरायगढ़ आए थे और सहरसा-फारबिसगंज रेलखंड पर आमान परिवर्तन की नींव रखी थी। रेलमंत्री ने कहा था कि सरायगढ़ से सकरी और सहरसा से फारबिसगंज तक आमान परिवर्तन की इस परियोजना की लागत 335 करोड़ की है और रक्षा मंत्रालय से स्वीकृति के बाद ही इसे पूरक बजट में लिया गया। उस समय अपने संबोधन में नेताओं ने सुरक्षा व सामरिक ²ष्टिकोण से सीमावर्ती इलाके में रेलवे की महत्वपूर्ण भूमिका को बताया था। ठंडे बस्ते में पड़ी है कई परियोजना कोसी अंचल के लोगों का ललितग्राम से मधेपुरा तक रेल से यात्रा करने का सपना पूरा नहीं हो सका। तत्कालीन रेल मंत्री स्व. ललित नारायण मिश्र ने सुपौल व मधेपुरा जिले में पड़ने वाले तथा सिंहेश्वर स्थान, विषहर स्थान सहित अन्य स्थानों को जोड़ने वाले 58 किमी लंबे मधेपुरा-ललितग्राम मार्ग को स्वीकृति दी थी। उस समय रेलखंड के निर्माण को बजट में भी शामिल किया गया। बाद में भी इसे पुन: बजट में शामिल किया गया। 1910 में भीमनगर-प्रतापगंज वाया दीनबंधी रेल लाइन की शुरूआत हुई थी। 10 अगस्त, 1910 को तांडवी कोसी ने इस रेल मार्ग को ध्वस्त कर दिया। फिर आज तक किसी की नजर उस पर नहीं पड़ी। इसके अलावा भी कई परियोजना ठंडे बस्ते में है।