गृहस्थ होते हैं संत, विरक्त होते हैं साधु
मोरारी बापू ने कहा संत और साधु की चर्चा करते हुए कहा कि गृहस्थ होते हैं संत और विरक्त होते हैं साधु। जो तंत न करे यानी संघर्ष न करे उसे संत कहते हैं।
सीतामढ़ी। मोरारी बापू ने कहा संत और साधु की चर्चा करते हुए कहा कि गृहस्थ होते हैं संत और विरक्त होते हैं साधु। जो तंत न करे यानी संघर्ष न करे उसे संत कहते हैं। जिसका कभी अंत नहीं वही संत। जिसे महंत बनने की इच्छा नहीं वही संत। जो अनंत है वह संत। जिसका जीवन सीधा-सादा हो वह साधु। जो अपने को बलिदान कर दे वह साधु। सच्चा जिसका जीवन हो वह साधु। कहा कह प्रकृति जड़ और पुरुष चेतन। माता-पिता जन्मदाता होते हैं। बच्चे को जन्म माता देती है। इसमें पिता के ¨जस का सहयोग होता है। मां रूप देती है, धर्म देती है। बालक जब बड़ा होता है तो माता-पिता दोनों कहते हैं आगे बढ़ो, यह करो, वह करो। लेकिन ध्यान रहे इस पर अधिकार न करो। शास्त्र कहता है कि गुरु भी दूसरा जन्म देता है। छह साल बाल जब माता बच्चे को अपने गोद से दूर कर गुरु के पास भेजती है तो गुरु उसे अपने गर्भ में रखकर फिर नया जीवन देता है। शरीर पांच तत्व क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर। गुरु भी अपने शिष्य में ये पांचों चीज देते हैं। वह पृथ्वी तत्व यानी धैर्य और सहनशीलता देते हैं। जल तत्व यानी संवेदना, वायु यानी स्वच्छता प्रदान करते हैं। गगन यानी आकाश तत्व डालते हैं समता का और अग्नि यानी तेज का जो तामसी कर्म को जलाकर ज्ञान से आलोकित करता है। संवेदना की चर्चा करते हुए मोरारी बापू ने कहा कि हर एक व्यक्ति में संवेदना होनी चाहिए। आज कल संवेदनशून्य होते जा रहे हैं। जरूरत है संवेदनाशील बनने की। संवेदना के संबंध में उन्होंने एक शायर की पंक्तियों को उद्धाृत करते हुए कह ' मैं कैसे धूप से खुद को हटाउं मेरे साये में कोई सो रहा है ' । संवेदना ऐसी होनी चाहिए कि मेरी छाया में कोई पले-बढ़े, ऐसी भावना रखनी चाहिए।