दुर्गा प्रतिमा के विसर्जन में सोलह कहार की परंपरा का चलन
शेखपुरा : शेखपुरा के दुर्गा पूजा में दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन में सोलह कहार की परंपरा का चलन वर्ष
शेखपुरा : शेखपुरा के दुर्गा पूजा में दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन में सोलह कहार की परंपरा का चलन वर्षों से जारी है। कहा जाता है कि शेखपुरा का दुर्गापूजा लगभग तीन सौ साल पुराना है, जब कहार जाति के ही कुछ किशोरों ने सबसे पहले बल्लम ठाकुरबाड़ी की परती जमीन पर ताड़ के ढमकों के नीचे दुर्गा की प्रतिमा स्थापित की थी। इस तीन सौ साल में शेखपुरा के दशहरा में विभिन्न मामलों में आधुनिकता को अंगीकार किया है, मगर विसर्जन में प्रतिमा को उनके मूल स्थान से विसर्जन स्थल पर ले जाने में अभी भी कई पूजा समितियां कहारों की ही मदद ले रही है। इसमें तीनों पुरानी पूजा समितियां मड़ पसौना,बल्लम ठाकुरबाड़ी तथा कमिश्नरी बाजार की विशाल प्रतिमा लोगों के कंधों पर ही ले जाई जाती है। इस वर्षों पुरानी परंपरा के तहत सोलह लोगों की टोलियां लगभग पांच ¨क्वटल वजनी प्रतिमा को कंधे पर उठाकर लगभग पांच किमी लंबे विसर्जन मार्ग पर चलते हैं। सोलह कहार की इस पुरानी परंपरा को लेकर दुर्गा पूजा समिति के पुराने सदस्य वीरेंद्र वर्णवाल कहते हैं कि इसके पीछे मां दुर्गा के प्रति सम्मान दर्शाने के साथ घर की बेटी के साथ अपनापन का भावनात्मक लगाव भी दिखता है। वीरेंद्र बताते हैं कि दशहरा में मां दुर्गा अपने नैहर आती हैं। वे कहते हैं कि हमारी भारतीय संस्कृति में यह पुराना चलन है कि नैहर से बेटी की विदाई में गांव-घर के लोग उसे खुद कंधा देकर विदा करते हैं। दुर्गा प्रतिमा के विसर्जन में सोलह कहारों की यह परंपरा भी इसी का प्रतीक है।