दो बिल्लियां जब-जब लड़ीं, तब-तब मजा बंदरों को आया
टॉप बॉक्स में लगाएं ----- शहरनामा का लोगो लगाएं ------ हमारे बड़े-बुजुर्ग वाकई जहीन
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हमारे बड़े-बुजुर्ग वाकई जहीन थे, महीन दिमाग वाले। तमाम कहावत और लोकोक्ति बना गए और सबके सब बड़े मायने वाले। एक कहानी बिल्लियों के बीच रोटी के बंटवारे की है। पूरा माल अकेले हजम करने की जुगत में दोनों हिस्से के बंटवारे पर राजी ही नहीं हो रही थीं। अंतत: बंटवारे की जिम्मेदारी बंदर को मिली और इन बंदरों, सियारों, लोमड़ियों की हरकतों से कौन नहीं वाकिफ! बांटते-बांटते हिस्सा बराबर हुआ नहीं और बंदर पूरा का पूरा माल गटक गया। बेचारी बिल्लियां मुंह लटकाए लौट गईं। बहुत बार चतुराई भारी पड़ जाती है और खाने-खिलाने वाले खूब जानते हैं कि इस बेगैरत जमाने में कोई अपना नहीं। इसलिए जब मौका बन पड़े तो कुछ खा-पचा लो। सूबा-समाज में इतने सारे बैतुलखुला (ट्वॉयलेट) बन गए। आखिर उनका भी इस्तेमाल जरूरी है। सियासत का हाजमा वैसे भी बड़ा तगड़ा होता है और दो-ढाई साल पहले का खाया-पीया आज तक पच भी गया होगा। बहरहाल खाने-पीने का यह खेल चरम पर है। काली कमाई से करोड़ों बंट चुके हैं और अभी करोड़ों बंटेंगे। इसी मौके की ताक में सारे के सारे धूर्त लगे हुए थे। जनता की आंख में धूल झोकने के? लिए घोषित कर दो कि 'अपहरण' हो गया और इस 'अपहरण' के दौरान सैर-सपाटा करो, खाओ-पीओ और बाद बाकी रकम अगली पुश्तों के लिए तिजोरी में सुरक्षित कर लो। तब तक लड़-लड़ाकर बिल्लियां भी शांत हो चुकी होंगी।
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इत्मीनान की उम्मीद से आए थे, वैसे इस खलबली में भी चांदी है
साहब आए तो बड़े खुश होकर, लेकिन आते ही कामकाज का बोझ पड़ गया। शुरुआत के दिन तो यह खींचतान थोड़ी परेशान करने वाली लगी, लेकिन गुणा-गणित के बाद समीकरण अपने फायदे में निकल रहा। अब साहब के दिल में हसरतें मचल रही हैं। होशियारी यह कि जुबां हिले नहीं। मुंह मीठा रहने के ये दिन सालों भर सलामत रहें, बहरहाल साहब ने इसके लिए जुगत भिड़ा दी है। गारंटी देने वाले हामी भी भरने लगे हैं। इससे अधिक अभी चाहिए भी क्या! दरअसल, साहब के इकबाल वाले दायरे में दो खेमे साफ-साफ दिख रहे। जो किसी खेमे में नहीं, वे गिनती के हैं और साहब की आंखों में शिनाख्?त किए जा चुके। बाकी के दो खेमों के अपने-अपने हित में। इन दोनों खेमों के हित में साहब का हित। साहब हिसाब लगा रहे तो दसों अंगुलियां घी में डुबी मिल रहीं। किस्मत इस कदर तगड़ी कि पूरा का पूरा मुंह ही कढ़ाही में है। पंचायती राज व्यवस्था का असली चेहरा यही दिखता है। कायदे-कानून की गांठ को खोलने पर किस्मत के कई पन्ने एक साथ खुल जाते हैं। गांव वाली वह डोर फिलहाल साहब के हाथ में है और किस्मत की उम्मीद में गणेश परिक्रमा करने वाले दाएं-बाएं। इसे ही राज-योग कहते हैं।
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छरहरा बदन और रंग गुलाबी, साहब लचकदार हैं
वर्दी वाले इस साहब को देखिए तो भरी जवानी में कमसिन उम्र का ख्याल आए। साहब हैं भी बड़े लचकदार। छरहरा बदन और रंग गुलाबी। ताव खाते हैं तो चेहरा इस कदर तमतमा जाता है जैसे कि लाल गुलाब पर दोपहर के सूरज की गिरती सीधी किरणें हों। वैसे साहब कब ताव खा जाएं, कब किस बात का बुरा मान जाएं, यह कोई नहीं जानता, सिवाय चापलूसों को छोड़कर। चापलूस कोई बुरी बात कहते ही नहीं। वे भले-बुरे का अंतर खूब जानते हैं, इसीलिए तो साहब से निभ रही। अब कोई शिकायत करे तो अपनी बला से। हाकिमी और चापलूसी में चोली-दामन का वास्ता है। खैर, साहब को ऐसी शिकायतों से कोई वास्ता भी नहीं। दामन है तो दाग की बातें उठती रहेंगी। वैसे भी कुछ दाग अच्छे होते हैं। गरज यह कि मेहरबां खुश रहें। बताते हैं कि साहब ने ऊपर-ही-ऊपर मामला फिट कर रखा है, इसीलिए कोई यह सोच रहा कि अपराध पर सजा होती है तो सोचने वाला गलत सोच रहा है। साहब के रहते ऐसी कोई उम्मीद न पालें, जो नाजुक दिल को टीस दे, क्योंकि साहब को दूसरी कई उम्मीदें पूरी करनी हैं। सिर सवार होते जा रहे चुनाव के इस मौसम में ऊपर वालों की कई जरूरतें हैं। साहब से बेहतर कौन समझता है!
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बादलों की आवारगी से हाकिम का दिल बाग-बाग
बड़े वाले साहब वाकई बड़े नरम मिजाज हैं। हंसता हुआ नूरानी चेहरा। कभी तनाव को हावी होने ही नहीं देते। बताते हैं कि जिस इलाके के घरवासी है, वहां छालीदार दही पर बड़े-बड़े रसगुल्ले डालकर खाने की रवायत है। ठंडे और मीठे तासीर वाले इस जायके का मिलाजुला असर यह होता है कि उम्र बढ़ने के साथ दिल-ओ-दिमाग में वैसी ही कै?फि?यत बढ़ जाती है। मीठा बोल कर सबको ठंडा किए रहिए। उसके बाद कामधाम की तलब कौन करता है! वैसे भी साहब से पूछने की हिमाकत कौन करे! इस ओहदेदार के आगे आकर ही कम बख्त वालों की जुबान को या तो काठ मार जाता है या फि?र वह इस कदर लबरेज हो जाती है कि खुशामद के सिवाय कोई लफ्ज नहीं निकलता। हाशिये की आबादी को चाहिए भी क्या! बाढ़-बारिश के इस मौसम में अगर जान सलामत है तो इससे अधिक की दरकार भी क्?या! साहब खुशकिस्मत हैं। मौसम का मिजाज उखड़ा हुआ है और बादलों की आवारगी चरम पर। जेठ गुजरते साहब फिक्रमंद हुए थे, लेकिन आषाढ़ गुजरते बरसात की हालत देख इलाके की साहबी रास आने लगी है। परेशानी के दो माह शेष बचते हैं, ऊपर वाले के रहम-ओ-करम से वे दिन भी कट ही जाएंगे। बाद बाकी न कोई नदियों को बहने से रोक पाया है और ना ही तटबंधों को टूटने से। आखिर मरम्मत के लिए भी तो गुंजाइश चाहिए।
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आदमी को हिजड़ा मच्छर बना देता है और व्यवस्था को बना देती है मक्खी
नाना पाटेकर की संवाद अदायगी और अभिनय का जोड़ नहीं। कुछ वैसे ही व्यवस्था की कलाबाजी है। अपने में मिसाल कायम करने वाली और बेजोड़। नाना पाटेकर की मानें तो एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है। उस मच्छर को मारने के लिए ताली पीटते रहिए और मच्छर है कि फुर्र-फुर्र। कुछ इसी तरह व्यवस्था एक मक्खी को मार रही है, बरसों से और मक्?खी है कि अपने पीछे बीमारों की एक फौज खड़ी करती जा रही। मच्छर को मारने वाला आदमी भले परेशान हो, लेकिन व्यवस्था को इसमें भी मजा है। नदी की धारा नियंत्रित करने से बढि़या है कि तटबंधों की मरम्मत की जाए और उसके दायरे में पर्याप्त घास-फूस रहे, ताकि चूहों के लिए गुंजाइश बरकरार रहे। इसी गुंजाइश में 'गंगा भी बहती है' और उस बहती गंगा में लोग हाथ धोते हैं। जेब की सेहत के लिए जरूरी है कि आदमी बीमार रहे। एक बीमार आदि के लिए अस्पताल की जरूरत होगी और उस अस्पताल के लिए साधन-संसाधन से लेकर दवा-दारू तक की। लोगों के लिए यही से 'गुंजाइश' बनेगी। अगर कि बीमारी ने बढ़कर महामारी और असाध्य होने का रुख अख्तियार कर लिया तो समझिए कि चांदी है।