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प्रसंगवश : तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आंखिन की देखी

मुजफ्फरपुर के बालिका गृह कांड के बाद पटना में आसरा होम की घटना से पूरी व्‍यवस्‍था कठघरे में दिख रही है। हालांकि, सत्‍ता शीर्ष पर सुशासन को लेकर गंभीरता दिख रही है।

By Amit AlokEdited By: Published: Mon, 20 Aug 2018 11:01 PM (IST)Updated: Tue, 21 Aug 2018 11:24 PM (IST)
प्रसंगवश : तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आंखिन की देखी
प्रसंगवश : तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आंखिन की देखी

पटना [भारतीय बसंत कुमार]। सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से पहले ही बिहार के मुजफ्फरपुर का बालिका गृह कांड देश की चिंता का विषय बन चुका था। अभी इस कांड की शिकार युवतियों और महिलाओं की त्रासदी के पन्ने पलटे ही जा रहे थे कि पटना में आसरा होम की घटना ने व्यवस्था को कठघरे में खड़ा कर दिया। आसरा होम का प्रसंग थोड़ा अलग है। यह कम समय में हैसियत से अधिक कर गुजरने की चेष्टा का दुष्परिणाम है। लेकिन मुजफ्फरपुर कांड में राजनीति और अफसरशाही के अनैतिक गठजोड़ के इस्तेमाल का कथाक्रम आगे कम पीछे ज्यादा लौट रहा है।

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शुक्र है कि राजनीति की शुचिता बनाए रखने के लिए शीर्ष पद पर एक आदमी हैं, जो कागद की लेखी से ज्यादा आंखिन की देखी पर भरोसा करते हैं। यह आंखिन की देखी ने ही सबसे पहले संकेत दे दिया था तब, जब अधिवेशन भवन में समाज कल्याण विभाग की नई योजना के शुभारंभ में विभाग की मंत्री को नजर चुरानी पड़ी थी। राजनीतिक हलके में यह बात गहरे पैठ गई थी कि अब विदाई तय है। मंत्री थीं कि कागद की लेखी के लिए अपनी जाति तक को दांव पर लगाने में कोई कसर न छोड़ रही थीं। लेकिन, उनकी नहीं बची।

कथाक्रम अब पीछे लौटा है और पूर्व मंत्री और उनके बेटे के अंदाज और मिजाज ने उन्हें भी लपेटे में लिया है। पार्टी ने तुरंत कदम उठाया और निष्कासित किया है। सवाल है कि पार्टी को पहले इसकी भनक क्यों नहीं थी? जब एजेंसी की आंच पहुंचती है तभी पल्ला क्यों झाड़ा जाता है? हम पहले पायदान पर ही छंटनी क्यों नहीं कर पाते हैं? यह कहानी इकलौती किसी पार्टी की नहीं है। हर दल में ऐसे 'सम्मानित' लोग हैं, जो पार्टी के अपमान का कारण बनते हैं। समाजसेवा के नाम पर अपनी दुकान चलाने वाले डबल 'ब' को भी पार्टी से निष्कासित किया गया है। राजनीति में ऐसे कुप्रसंग आते रहेंगे तो लोगों का विश्वास कैसे बना रहेगा? यह चिंता उन राजनीतिज्ञों को सालती होगी जो सेवाभावना से लगातार इसमें जुटे हैं। भारतीय राजनीति की धारा स्वतंत्रता आंदोलन के संघर्षों से पनपती है और बहुत गहरे गुजरती है। आरके लक्ष्मण का एक कार्टून बहुत चर्चित हुआ था। टोपी पहने एक नेताजी ड्राइंग रूम में बैठे कुछ लोगों से बात कर रहे हैं, तभी उनकी श्रीमती अपने बालक का हाथ पकड़े आ धमकती हैं। कार्टून बस इतनी ही भाव की रेखाओं का समुच्चय है, पर नीचे जो पंक्तियां उस भाव को समझने के लिए दर्ज थीं, वो अर्थवान थीं।  श्रीमती कह रही हैं-'आपको तुरंत राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए। आपके कामकाज का इस पर गलत असर पड़ रहा है और यह (अपने बच्चे के बारे में) सोचता है कि वह झूठ और धोखाधड़ी से काम चला सकता है।' यह व्यंग्य राजनीति को, राजनीतिज्ञ को सचेत करते रहने के लिए काफी है।

 मुजफ्फरपुर कांड की सीबीआइ जांच शुरू है। आरोपित पूर्व मंत्रियों के नाम एक्सपोज हो चुके हैं। बापू ने कहा था कि राजनीति ने हमें सांप की कुंडली की तरह जकड़ रखा है और इससे जूझने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं है। राजनीतिक संगठन और सामूहिक निर्णय के किसी ढांचे के बगैर कोई भी समाज जिंदा नहीं रह सकता। राजनीति किसी भी समाज का महत्वपूर्ण अंग है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे सामने ऐसे ताजा उदाहरण हैं कि राजनीति का संबंध किसी भी तरीके से निजी स्वार्थ साधने के धंधे से जुड़ गया है। मुजफ्फरपुर बालिका गृह कांड तो अजीब है। इसमें केवल राजनीति या अफसरशाही ही बदनाम नहीं हुई है, पत्रकारिता भी ऐसी बदनामी में हिस्सेदार हुई है। पारिवारिक इस्तेमाल वाले प्रेस की भूमिका पर नियमन के लिए अभी और कठोर नियम तय करने होंगे। सार्वजनिक जीवन में ईमानदार राजनीतिज्ञ, ईमानदार प्रेस की कमी नहीं। कुछ गंदे लोगों के कारण संगठन या किसी ढांचे को गंदला नहीं माना जा सकता है। बस फर्क कागद की लेखी.... और आंखिन की देखी... का बने रहना चाहिए। जो जहां भी शीर्ष पर है, उसे आंखिन की देखी से ही संभलना होगा, संभालना होगा। कबीर  पढ़े-लिखे नहीं थे लेकिन, पढ़ाने के इतने काबिल थे कि छह सौ साल पहले कही उनकी बात आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी कल रहेगी। कबीर आगे कहते हैं-मैं कहता सुरझावन हारी तू राखा उरझोय रे ...। यानी धागा उलझाने वाले बने रहेंगे, बचे रहेंगे। बस शीर्ष पर बैठे लोगों के लिए जरूरी है कि वे धागों को उलझने न दें। उलझे हुए धागे को सुलझाने का माद्दा बनाए रखें। संचयन का अतिशय लोभ राजनीति में गहरे पैठ गया है। वोट को भी खरीद लेने की लालसा पाले लोग किसी भी हद तक जा रहे हैं। नैतिकता को भूल कर, लोकहित की चिंता से दूर भटक कर, केवल अपसंचयन के लिए राजनीति करने वाले को निश्चय ही पहले पायदान पर रोकना होगा। आदर्श का लोप होगा तो स्थिति भयावह हो जाएगी। संदेश और दृढ़ संकेत जो अब तक दिया गया है, वह निश्चय ही भरोसा के योग्य है। चाहे तत्काल सीबीआइ की जांच का मामला हो या फिर आरोपित मंत्री का पदत्याग या पार्टी से पूर्वमंत्री की पुत्र समेत विदाई। जहां भी दाग है, उसे मिटाया तो जा रहा है, कुछ उपाय ऐसे भी करने होंगे कि दाग लगे ही नहीं...।


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