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जीना इसी का नाम है: संकट में एकजुट हुए तो ठेले ने भरा जिंदगी में रंग, दो ठेले बनवाकर रोस्टर पर चला रहे लौटे प्रवासी

बिहार के गोपालगंज जिले में लॉकडाउन में संकट में फंसे प्रवासी घर तो आ गए पर रोटी का उपाय न हो सका सरकारी वादा भी जुमला निकला तब मिलकर मिलकर निकाली युक्ति। आर्थिकी स्थिति भी सुधरी

By Bihar News NetworkEdited By: Published: Fri, 14 Aug 2020 10:49 PM (IST)Updated: Fri, 14 Aug 2020 10:49 PM (IST)
जीना इसी का नाम है: संकट में एकजुट हुए तो ठेले ने भरा जिंदगी में रंग, दो ठेले बनवाकर रोस्टर पर चला रहे लौटे प्रवासी
जीना इसी का नाम है: संकट में एकजुट हुए तो ठेले ने भरा जिंदगी में रंग, दो ठेले बनवाकर रोस्टर पर चला रहे लौटे प्रवासी

मनोज उपाध्याय, गोपालगंज : घर परिवार को छोड़ दूसरे प्रांतों में काम के लिए गए प्रवासियोंं ने नहीं सोचा था कि कोरोना काल में पेट भरने के लाले पड़ जाएंगे। लॉकडाउन के दौरान कई दिन भूखे रहे और जैसे-तैसे गांव लौटे तो यहां भी दुश्वारियों ने साथ नहीं छोड़ा। सरकार का काम देने का वादा शिगूफा साबित हुआ। मशक्कत के बाद भी कोई काम-धंधा नहीं मिला। घर में चूल्हा जलना बंद होने की नौबत आ गई। ऐसे में संकट से निकलने के लिए मिल-बैठकर मंथन के बाद दो ठेले बनवाए गए। आज ठेले पर रोस्टर के हिसाब से कोई जलेबी बेच रहा तो कोई भूंजा व कोई अन्य सामान और अब परिवार को दो जून की रोटी नसीब होने लगी है।

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 सरकार का काम देने का वादा  शिगूफा हुआ साबित 

संकट की घड़ी से उबरने की यह कहानी गोपालगंज जिले के कुचायकोट प्रखंड से जुड़ी है। यहां ढेबवा गांव के अमरजीत पटेल, प्रभु साह, इंदल प्रसाद, गंगा प्रसाद, राजेश पटेल, दीपक पटेल, साबिर अंसारी व अमित कुमार अब पेट भरने के लिए किसी के मोहताज नहीं हैं।

ऐसे खोजा अपने व परिवार को संभालने का रास्‍ता

अमरजीत पटेल और प्रभु साह ने बताया कि अमृतसर में एक फैक्ट्री में काम करते थे। इंदल प्रसाद तथा गंगा प्रसाद बोले कि लुधियाना में फैक्ट्री में थे।। ढेबवा गांव के ही राजेश पटेल, दीपक पटेल, साबिर अंसारी, अमित कुमार, राजन पटेल ने बताया कि राजस्थान के बीकानेर में सभी काम-धंधे में लगे थे। वहां से भेजे गए रुपये से गांव में परिवार का चूल्हा जलता था। लॉकडाउन में सब कुछ ठप हो गया। गांव लौटने पर रोजी-रोटी की समस्या और प्रबल हो गई । कोई छोटा-मोटा काम भी नहीं मिला। जमा पूंजी खत्म होने लगी। आपस में मिलकर संकट से उबरने का फैसला किया। अमरजीत प्रसाद बताते हैं कि इतना रुपया नहीं था कि कोई काम-धंधा किया जा सके। ऐसी स्थिति मेंं सभी ने मिलकर पांच हजार की लागत से दो ठेले बनवाए।

 पैसे की तंगी से सबने मिलकर दो ठेले बनवाए,  बारी-बारी चलाते हैं

सभी बताते हैं कि किस दिन कौन ठेले पर सामान बेचेगा, इसके लिए दिन निर्धारित है। एक दिन अमरजीत प्रसाद जलेबी छानते हैं तो इसी दिन दूसरे ठेले पर प्रभु साह सब्जी बेचते हैं। दो ठेले पर अलग-अलग दिन कोई भूंजा तो कोई अन्य सामान बेचता है। एक आदमी औसतन सारे खर्चे निकालकर 500 रुपये कमा लेता है। एक दिन में दो लोगों को रोजगार मिल जाता है। हफ्ते में एक-दो दिन ही एक आदमी खाली रहता है। अब बाहर नहीं जाएंगे। पूंजी इकट्ठीे कर रहे हैं, यहीं मिलकर धंधे को और बड़ा करेंगे।


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