बिहार में बाहुबली नेताओं की है अनंत कथा, अगली पटकथा लिखने को भी हैं बेताब, जानिए
बिहार की सियासत में बाहुबली नेताओं की एक परंपरा है। बिहार की सियासत की बात करें तो इसमें आदि से अंत तक कई अनंत हैं, जो अगली पटकथा के भी पात्र हो सकते हैं।
पटना [अरविंद शर्मा]। बिहार में तो बाहुबलियों का शुरू से ही बोलबाला रहा है। इनके जुर्म की कहानियां पूरे देश में कुख्यात हैं। जरायम की दुनिया में एकछत्र राज करने के अलावा राजनीति में ऊंचे रसूख के चलते भी यह हमेशा पुलिस और सरकारों के लिए चुनौती रहे हैं। इनमें से कई नामों ने तो राजनीति में भी ऊंचा मुकाम हासिल किया है।
सियासत में बाहुबली नेताओं की है परंपरा
बिहार की सियासत में बाहुबली नेताओं की एक परंपरा है। मुंगेर संसदीय सीट से चुनाव लडऩे के लिए बेताब निर्दलीय विधायक अनंत सिंह अकेले नहीं हैं। अखाड़े के इर्दगिर्द और भी कई हैं, जो फिरौती, हत्या, अपहरण एवं अन्य आपराधिक मामलों के आरोपी रहे हैं। दहशत के दम पर सदन भी पहुंच चुके हैं। अदालत ने इंसाफ किया तो पत्नी को विरासत सौंप दी। राहत मिली तो अखाड़े में फिर आ धमके।
अनंत सिंह कांग्रेस के टिकट पर ठोक रहे ताल
तीन दिन पहले पटना से मोकामा तक महागठबंधन के स्वयंभू प्रत्याशी बाहुबली अनंत के समर्थन में गाडिय़ों के काफिले ने संकेत कर दिया कि इस बार भी कुछ सीटों पर लोकतंत्र बनाम लाठीतंत्र के बीच मुकाबला हो सकता है। अनंत खुद को कांग्रेस प्रत्याशी होने का डंका बजा रहे हैं। लेकिन कांग्रेस की तरफ से अबतक इसके कोई संकेत नहीं मिले हैं।
हालांकि अनंत सिंह को लेकर कांग्रेस के आला नेताओं ने इनकार भी नहीं किया है। जरूर कुछ सियासी मकसद होगा। कांग्रेस पटना में तीन फरवरी की रैली में भीड़ के लिए अनंत का तलबगार है। अब देखना ये होगा कि अनंत कांग्रेस के साथ होते हैं या नहीं।
बिहार की सियासत में आदि से अंत तक कई अनंत
मोहम्मद शहाबुद्दीन
क्राइम से राजनीति में पैर जमाने वाले मोहम्मद शहाबुद्दीन जिसने छोटी उम्र में ही अपराध की दुनिया में कदम रख दिया था। जल्द ही लालू का दामन पकड़कर वह राजनीति में भी उतर आया। शहाबुद्दीन की खबरें तब फैली, जब उन्होंने राजद नेता को गिरफ्तार करने आए पुलिस अफसर को थप्पड़ जड़ दिया था।
इसके बाद भारी अमले के साथ उसे पकड़ने पहुंची पुलिस और उसके गुर्गों के बीच घंटों गोलाबारी हुई थी। जिसमें दो पुलिसकर्मियों समेत दस लोग मारे गए थे। हालांकि तब भी शहाबुद्दीन पुलिस की पकड़ में नहीं आ सका था। बाद में सरकार बदलने पर उसे जेल भेजा गया।
पप्पू यादव
90 के दशक में अपनी दबंगई से खबरों में रहने वाले पप्पू यादव के खिलाफ 17 क्रिमिनल केस हैं। फिलहाल वह और उनकी पत्नी सांसद हैं। पप्पू यादव पर कानून का शिंकजा तब कसा गया जब उसने कम्यूनिस्ट पार्टी के विधायक अजीत सरकार की हत्या कर दी थी। इस आरोप में उसे अदालत ने उम्रकैद की सजा सुनाई थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसे बरी कर दिया।
कई बाहुबली अाज भी हैं राजनीति में सक्रिय
1984 में गोपालगंज से निर्दलीय लड़कर लोकसभा पहुंच चुके काली पांडेय से लेकर शहाबुद्दीन, सूरजभान, आनंद मोहन, पप्पू यादव, प्रभुनाथ सिंह एवं साधु यादव जैसे बाहुबलियों ने रास्ता दिखाया है। इनमें से कई ने पत्नियों या अगली पीढ़ी को विरासत सौंप दी है। कुछ खुद सक्रिय हैं। राजद विधायक सुरेंद्र यादव का जहानाबाद से प्रत्याशी बनना तय है।
पश्चिमी चंपारण संसदीय सीट से राजन तिवारी भी लाइन में हैं। तिहाड़ में बंद शहाबुद्दीन ने पत्नी हीना शहाब को आगे कर दिया है। सिवान से हीना को लालू प्रसाद का आशीर्वाद चाहिए। विधायक अशोक हत्याकांड में महाराजगंज के पूर्व सांसद प्रभुनाथ की चाहत जब हजारीबाग जेल में बंद हो गई तो पुत्र रणधीर के कंधे पर विरासत का भार आ गया है।
जदयू के बाहुबली नेता मुन्ना शुक्ला वैशाली से फिर ताल ठोकने के फेर में हैं। पिछली बार साध पूरी नहीं हुई तो पत्नी अन्नु को निर्दलीय उतार दिया। सूरजभान लोजपा की राजनीति करते हैं। हत्या के जुर्म में कोर्ट ने प्रतिबंधित कर दिया तो पत्नी वीणा देवी को लोकसभा भेज दिया। मुंगेर से अबकी फिर दावेदार हैं।
डुमरांव के जदयू विधायक ददन पहलवान ने बक्सर सीट पर दावेदारी ठोंक रखी है। उन्होंने अभी से हेलीकॉप्टर भी बुक करा लिया है। जदयू ने अगर टिकट से वंचित किया तो निर्दलीय भी लडऩे को तैयार हैं। लोजपा के बाहुबली नेता हुलास पांडेय काराकाट से टिकट की कोशिश में हैं। वह सुनील पांडेय के भाई हैं। दोनों भाई पहले जदयू में थे।
बॉलीवुड भी जानता है काली की करामात
बिहार में बाहुबल से संसदीय चुनाव जीतने की शुरुआत 1984 में काली पांडेय ने की थी। कांग्र्रेस लहर में भी उन्होंने गोपालगंज में लोकदल प्रत्याशी नगीना राय को भारी शिकस्त दी थी। काली के दबदबे का डंका बॉलीवुड तक बजने लगा था।
सियासत और अपराध में गठजोड़ पर आधारित फिल्म प्रतिघात के खलनायक काली की भूमिका भी इन्हीं को आधार मानकर तैयार की गई थी। हालांकि काली का जलवा ज्यादा दिनों तक बरकरार नहीं रहा। 1984 की जीत पहली और आखिरी साबित हुई। इसके बाद लगातार चार चुनाव दल बदलकर लड़ते-हारते रहे। काली अभी लोजपा में हैं।