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शर्म कैसी....झिझक क्यों, अब खुलकर कीजिये बात

आज हम विकास और प्रगति के पथ पर अग्रसर हैं। आज महिलाएं हर क्षेत्र में नया मुकाम हासिल कर रही हैं। लेकिन आज भी हमारी मानसिकता एेसी है कि हम माहवारी के बारे में बात नहीं करते।

By Kajal KumariEdited By: Published: Mon, 28 May 2018 08:53 PM (IST)Updated: Tue, 29 May 2018 04:55 PM (IST)
शर्म कैसी....झिझक क्यों, अब खुलकर कीजिये बात
शर्म कैसी....झिझक क्यों, अब खुलकर कीजिये बात

पटना [काजल]। आधुनिकता और सूचना क्रांति के इस दौर में जहां हम चांद-तारों के पार पहुंच गए हैं, लड़कियां और महिलाएं कामयाबी की नित नई परिभाषाएं लिख रही हैं। लेकिन, इन उपलब्धियों के बावजूद हमारे देश के कई इलाकों में महिलाओं और लड़कियों की माहवारी को लेकर कई अंधविश्‍वास प्रचलन में हैं। इसपर बात करना तक वर्जित माना जाता है।

यूनीसेफ द्वारा बिहार के  वैशाली और नालंदा में स्कूली बच्चियों के बीच कराए गए सर्वेक्षण के अनुसार 59 फ़ीसद लड़कियां माहवारी के दौरान स्कूल नहीं जातीं, वहीं 96 फ़ीसद लड़कियां गंदे कपड़े का इस्तेमाल करती हैं और ये बातें वे किसी से शेयर नहीं करतीं। डॉक्‍टरों की मानें तो शहरी शिक्षित समाज में भी सैनिटरी नैपकिन को लेकर जागररूकता की कमी है। नैपकिन के गलत इस्‍तेमाल से कैंसर सहित कई बीमारियां भी हो सकती हैं।

माहवारी के दिनों में बच्चियों के स्कूल जाने पर रोक

देश के कई हिस्से में लड़कियां आज भी अपनी माहवारी के दौरान स्कूल नहीं भेजी जातीं। वे शर्म के मारे घर में रहने को मजबूर हो जाती हैं। उन्हें ये लगता है कि ये कोई बीमारी है। इतना ही नहीं, कई घरों में आज भी पहली बार माहवारी आने पर लड़कियों से अछूत की तरह व्यवहार किया जाता है।

संकोच और झिझक 

आज भी लाखों माएं अपनी बेटियों को माहवारी आने से पहले उसके बारे में नहीं बतातीं, क्योंकि हमारे समाज, खासकर गांवों में ये संकोच और झिझक का मुद्दा माना जाता है। इसका नतीजा ये है कि आज हमारे देश की 70 फीसद लड़कियों को पहली माहवारी के बारे में कोई जानकारी ही नहीं है। इससे उनकी शिक्षा और सेहत दोनों पर असर पड़ रहा है।

संयुक्त राष्ट्र के एक सर्वे के दौरान कई देशों में जब लड़कियों से बात की गई तो उनमें से एक तिहाई ने बताया कि मासिक धर्म शुरू होने से पहले उन्हें इस बारे में बताया ही नहीं गया था। इसलिए, जब अचानक शुरू हुआ तो समझ में ही नहीं आ रहा था कि वे क्या करें?

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माहवारी पर बात करने की इजाजत नहीं
हमारे समाज में माहवारी एक ऐसा विषय है, जिसपर लड़कियां न तो खुलकर बात कर पाती हैं और न ही बात करने की इज़ाजत है। हालांकि, यह एक प्रकृति प्रदत्‍त सामान्य प्रक्रिया है, जिसकी वजह से यह सृष्टि चल रही है। ये ना हो तो मातृत्व और जीनव-चक्र ही खत्म हो जाए। ऐसे में फिर इस क्रिया को लेकर इतना भेदभाव क्यों? क्यों लड़कियों-महिलाओं को इस बारे में बात करने में झिझक होती है?

90 फीसद लोग अब भी नहीं करते हैं इस पर बात

समाज में माहवारी जैसी अहम बात पर लोग बात नहीं करना चाहते हैं। महिलाओं की इस प्राकृतिक प्रक्रिया को छूत और ना जाने किस किस रूप में देखा जा रहा है। आज भी घर में पुरुषों को माहवारी के बार में ना तो बताया जाता है और ना ही वो इसपर बात करना अच्छी बात समझते हैं।

कई तरह के हैं मिथक
'अरे तुमने अचार क्यों छू लिया?', 'तब तक किचन के आसपास भी न फटकना...', ' तो तब तक स्कूल जाना बंद कर दो...', 'कैसी लड़की हो तुम, दुकान पर पैड लेने चली गई...', 'तुम घर में सबके सामने ‘ऐसी बातें’ कर लेती हो...।' ये तो कुछ उदाहरण है, जो महिलाओं व लड़कियों को मासिक के दिनों में सुनने को मिलते हैं।
शहरों में स्थितियां जरूर बदली हैं, लेकिन ग्रामीण इलाकों में हालात बदतर हैं। माहवारी के दिनों में महिलाएं अपवित्र मानी जाती हैं। कई और अंधविश्वास भी भरे हैं। 

गायों के बाड़ों में सोना पड़ता है

कई जगहों में तो ऐसी महिलाओं को 5 से 7 दिनों तक गायों के बाड़े में सोना पड़ता है। ये महिलाएं अलग प्लेट में खाना खाती हैं। माहवारी के दौरान वे किसी को छू नहीं सकतीं। पहली बार माहवारी होने पर लड़कियां अपने परिवार के किसी पुरुष को देख भी नहीं सकतीं। ऐसा माना जाता है कि अगर किसी रजस्वला महिला ने किसी दूसरी महिला या पुरुष को छू लिया या उसे खाना दे दिया तो वह बीमार पड़ जाएगा।

बताया डॉक्टर ने

पटना स्थित नालंदा मेडिकल कॉलेज अस्‍पताल (एनएमसीएच) की महिला औऱ प्रसूति रोग विशेषज्ञ डॉक्टर निभा रंजन ने बताया कि ये सब अंधविश्‍वास हैं। एेसा हरगिज नहीं कि माहवारी के दौरान अचार छूने से खराब हो जाता है या ये कोई बीमारी है। यह एक सामान्य प्रक्रिया है और इसे स्वीकार करने के लिए हर लड़की को तैयार करना चाहिए।

उन्होंने बताया कि उनके पास कितनी ही बच्चियां आती हैं, जिन्हें कई तरह के इंफेक्शन होते हैं। इनमें सफेद पानी आने, जननांगों में खुजली तथा दाने उभर आने की शिकायतें होती हैं। हां, कुछ महिलाएं एेसी भी आती हैं, जिन्हें गर्भाशय से संबंधित गंभीर बीमारियां भी होती हैं।

परिजनों से इस बारे में नहीं करतीं बात

डॉ. निभा रंजन के अनुसार ये महिलाएं इस बारे में परिवार के सदस्यों से बात नहीं करतीं और खुद से घरेलू नुस्खे अपनाती हैं, जिनसे स्थिति गंभीर हो जाती है। आज भी महिलाएं अपनी अंदरूनी बीमारियों को लेकर ज्यादा गंभीरता नहीं दिखातीं, अपनी साफ-सफाई पर ज्यादा ध्यान नहीं देतीं। 82 फीसद महिलाएं आज भी माहवारी के दौरान पुराने तौर-तरीके ही अपनाती हैं और इंफेक्शन की शिकार होती हैं। उन्होंने बताया कि सैनेटरी नैपकिन का इस्तेमाल करने वाली  महिलाएं भी प्रोडक्ट के सही इस्तेमाल को लेकर जागरूक नहीं हैं।

दोनों ही तथ्यों के बारे में गौर किया जाए तो इसकी प्रमुख वजह यही सामने आती है कि अधिकांश तौर पर महिलाएं इस संबंध में किसी से खुलकर चर्चा नहीं करना चाहतीं और असुरक्षित विकल्प अपनाने के लिए विवश रहती हैं। इसका परिणाम उनके मूत्र एवं प्रजनन वाले हिस्से में संक्रमण के अलावा मानसिक तनाव एवं चिंता के रूप में सामने आता है।

माहवारी को लेकर किसी भी तरह के संशय पर खुलकर बात करें, ये स्त्री के जीवन का अहम हिस्सा है और इसपर बात करने में शर्म कैसी और झिझक कैसी? अगर इसपर खुलकर बात की जाए तो हो सकता है कि हम 50 फीसद लड़कियों और महिलाओं को गंभीर बीमारियों से बचा सकते हैं और उन दिनों में होने वाले मानसिक तकलीफ को कम कर सकते हैं।

पर्यावरण के लिए खतरा बने सैनिटरी नैपकिन
एक रिसर्च के मुताबिक एक शहरी महिला पूरी जिंदगी में करीब 17 हजार सैनेटरी नैपकिन यानी 125 किलोग्राम सैनेटरी नैपकिन का इस्तेमाल करती है। लेकिन इस सैनिटरी नैपकिन को बायोडिग्रेड करना पूरी दुनिया के लिए सबसे बड़ा खतरा बनता जा रहा है, क्योंकि ये पर्यावरण के लिए बहुत ही खतरनाक है।
एक सैनेटरी नैपकिन को अगर इस्तेमाल करके ऐसे ही खुले में फेंक दिया जाता है तो उसे नष्ट होने में 800 साल तक लग सकते हैं। अगर उसे मिट्टी में दबाया जाता है तो भी उसे नष्ट होने में कम से कम 100 साल लग जाते हैं। इस तरह यह पर्यावरण के लिए भी एक बहुत बड़ा खतरा भी है। यहां यह स्पष्ट कर देना सही होगा कि यह स्थिति सिर्फ सैनेटरी नैपकिन को लेकर ही नहीं है, बल्कि बच्चों और बुजुर्गों के डायपर के मामले में भी ऐसा ही होता है।

कई बीमारियों को देता न्यौता

तथ्‍य यह भी है कि सैनेटरी नैपकिन कई तरह की बीमारियों को भी न्योता देता है। इसमें डायोक्सिन नामक पदार्थ का इस्‍तेमाल किया जाता है। डायोक्सिन का उपयोग नैपकिन को सफेद रखने के लिए किया जाता है। हालांकि, इसकी मात्रा कम होती है लेकिन फिर भी नुकसान पहुंचाता है। इसके चलते ओवेरियन कैंसर, हार्मोनल डिसफंक्‍शन, डायबिटीज और थायरॉयड की समस्‍या हो सकती है।
नैपकिन बनाने के दौरान उस पर कृत्रिम फ्रेगरेंस छिड़का जाता है, जिससे एलर्जी और त्वचा को नुकसान होने का खतरा रहता है। लंबे समय तक नैपकिन के इस्‍तेमाल से वेजाइना में स्‍टेफिलोकोकस ऑरे‍यस बै‍क्‍टीरिया बन जाते हैं। इससे डायरिया, बुखार और ब्‍लड प्रेशर जैसी बीमारियों का खतरा रहता है।

ऑर्गेनिक क्‍लॉथ पैड्स


कपड़ों की जगह ले ली सैनिटरी नैपकिन ने 

अब बाजार में ऑर्गेनिक क्‍लॉथ पैड्स उपलब्ध हैं। ये रूई और जूट या बांस से बने होते हैं। यह इस्तेमाल करने में भी आरामदायक रहता है और उपयोग किए गए पैड्स को धोकर फिर से इस्‍तेमाल किया जा सकता है। साथ ही ये पर्यावरण को भी नुकसान नहीं पहुंचाते। इन्हें जलाकर या मिट्टी में गाड़ दिया जाए तो ये स्वतः नष्ट हो जाते हैं, मिट्टी में मिल जाते हैं। इन पैड्स की डिमांड बढ़ती जा रही है, लेकिन केवल शहरी क्षेत्रों में ही इन्हें लोग जानते हैं।

बायोडिग्रेडेबल पैड 

बायोडिग्रेडेबल का मतलब है एक एेसे पदार्थ से है जिसे आसानी से बैक्टीरिया या जीव-जंतुओं की सहायता से नष्ट किया जा सके। इससे पर्यावरण को किसी तरह का खतरा नहीं रहता। इस तरह के नैपकिन्स इस्तेमाल करने में भी बहुत मुलायम होते हैं। इनसे कैंसर और इंफेक्शन होने का खतरा भी नहीं होता। 

कपड़े के बने पैड्स, होते हैं सबसे सुरक्षित
डॉक्टर निभा रंजन ने बताया कि वैसे तो हम रूई और बैंडेज से बने नैपकिन लेने की सलाह देते हैं, लेकिन पुराने जमाने में जो सूती कपड़े प्रयोग किए जाते थे, वो भी सुरक्षित होते हैं, बशर्ते कि उन्हें अच्छी तरह धोकर, खुली धूप में सुखाया जाए। उन्होंने बताया कि विदेशों में भी अब क्लॉथ पैड्स प्रयोग किए जा रहे हैं, जो रंग-बिरंगे और सस्ते होते हैं। इनका इस्तेमाल भी आसान होता है। सबसे खास बात ये है कि इन्हें नष्ट करना भी आसान है और ये इको फ्रेंडली होते हैं। 

क्लॉथ पैड्स घर में भी पुराने कपड़े को धोकर, सुखाने के बाद ढेर सारा बनाकर एक अलग बैग में रखे जा सकते हैं। इसे बनाने की व प्रयाेग की विधि आजकल यू-ट्यूब पर भी वीडियो के जरिए बताई जा रही है।

कई संस्थाएं कर रहीं क्लॉथ पैड का निर्माण
देश में कई संस्थाएं हैं जो पुराने कपड़ों को इकट्ठा कर उन्हें साफ-सुथरा कर मशीन से क्लॉथ पैड का निर्माण कर ग्रामीण इलाकों में उपलब्ध करा रही हैं। बिहार में कई संस्थाओं की सदस्य गांव-गांव जाकर महिलाओं और बच्चियों से पर्सनल हाइजीन को लेकर  बातें कर उन्हें जागरुक कर रही हैं।


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