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कभी दल तो कभी दिल की सुन मतदान करती रही पटना लोकसभा क्षेत्र की जनता

पटना के लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व की खातिर बड़े से बड़े राजनेताओं ने अपने राजनीतिक रिश्तों तक की आहुति दी। जनता ने सबकी नब्ज टटोली फिर वोट दिया।

By Akshay PandeyEdited By: Published: Mon, 25 Mar 2019 04:25 PM (IST)Updated: Mon, 25 Mar 2019 04:25 PM (IST)
कभी दल तो कभी दिल की सुन मतदान करती रही पटना लोकसभा क्षेत्र की जनता
कभी दल तो कभी दिल की सुन मतदान करती रही पटना लोकसभा क्षेत्र की जनता

श्रवण कुमार, पटना। पटना लोकसभा क्षेत्र का राजनीतिक मिजाज ही कुछ ऐसा रहा कि एक बार जो इस चित पर चढ़ा उसकी चाहत कम नहीं हुई। पटना के वोटरों की इस दरियादिली के कायल राजनीति के चितचोर भी हैं। तभी तो सितारों से लेकर साहब और शहजादी तक ने संसद की रेड कार्पेट तक पहुंचने के लिए पटना को अपनी पसंद बनाई।

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बात 2008 से पहले के पटना संसदीय क्षेत्र की हो या फिर परिसीमन बाद के पटना साहिब और पाटलिपुत्रा लोकसभा की। पटना के लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व की खातिर बड़े से बड़े राजनेताओं ने अपने राजनीतिक रिश्तों तक की आहुति दे दी। पटना ने भी कभी दल पर तो कभी दिल पर भरोसा कर नेताओं के राजनीतिक रिश्तों की परवाह किए बगैर अपना मत दान किया है।

कभी भाकपा के लिए थी मजबूत राजनीतिक जमीन

पटना कभी भाकपा के लिए मजबूत राजनीतिक जमीन मानी जाती थी। तब रामावतार शास्त्री पटना के नायक हुआ करते थे। इंदिरा गांधी से बेहतर रिश्ते की वजह से डॉ. सीपी ठाकुर का जुड़ाव कांग्रेस से हुआ था। इसी रिश्ते के कारण 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में डॉ. ठाकुर ने पहली बार पटना से चुनाव लड़ा था। रामावतार शास्त्री को पराजित कर उन्होंने पटना से वामपंथ की जमीन को ही लगभग खत्म कर दिया। पटना ने भी इसके बाद कभी वामपंथ से राजनीतिक रिश्ता नहीं बनाया। इधर सीपी ठाकुर का रिश्ता भी कांग्रेस के साथ ज्यादा दिनों तक नहीं चला।

बकौल डॉ. ठाकुर, 1990 के बाद बिहार की जो स्थिति बनी थी, उसका विरोध करना कांग्रेस को रास नहीं आ रहा था। कई बार हमने इस बारे में बातें की थी, पर मेरी बातों को तवज्जो नहीं दिया गया। इसीलिए हमने कांग्रेस से रिश्ते खत्म कर लिए। डॉ. ठाकुर राजनीति की दूसरी पाली भाजपा के साथ खेलते हुए 1998 में फिर से पटना के सांसद बने।

1989 से पटना पर चढऩे लगा भगवा रंग

लालू प्रसाद के बेहद नजदीकी माने जाने वाले रामकृपाल यादव के राजनीतिक रिश्ते भी हवनकुंड में भस्म हुए हैं। रामकृपाल ने पटना संसदीय क्षेत्र में तैयार हो रही भाजपा की जमीन पर 1991 में लालू की सरपरस्ती में ही कब्जा किया था। इससे ठीक पहले ही 1989 में प्रो. शैलेन्द्र नाथ श्रीवास्तव ने पटना को भगवा रंग में रंगते हुए संसद की सीढ़ी चढ़ी थी, पर महज दो साल बाद हुए लोकसभा चुनाव में ही रामकृपाल ने उन्हें पराजित कर पटना पर कब्जा जमा लिया। ये वक्त राम मंदिर आंदोलन के ऊफान का था। इसके बाद 1996 से लेकर 2004 तक रामकृपाल ने पटना का हर संसदीय चुनाव लालू प्रसाद के दल से ही लड़ा। हालांकि इस बीच में 1998 और 1999 में हुए चुनाव में रामकृपाल को भाजपा के सीपी ठाकुर से शिकस्त भी खानी पड़ी। 2004 में फिर से रामकृपाल पटना से जीत कर संसद पहुंचे।

फिर ढीली पड़ी लालू और रामकृपाल के रिश्ते की डोर

2008 में हुए पटना के परिसीमन के साथ ही लालू और रामकृपाल के रिश्ते की डोर ढीली होती गई। पाटलीपुत्रा और पटना साहिब दो नए लोकसभा क्षेत्र अस्तित्व में आ गए। 2009 में जब लालू प्रसाद ने खुद ही पाटलपिुत्रा संसदीय क्षेत्र से मैदान में कूदने का ऐलान कर दिया, तब मन मारकर भी रामकृपाल ने साथ दिया। कभी लालू के राजनीतिक साम्राज्य के चाणक्य कहे जाने वाले रंजन यादव तब नीतीश कुमार का तीर प्रत्यंचा पर चढ़ा कर सामने खड़े थे। लालू और रंजन यादव के राजनीतिक रिश्ते के अंत का गवाह भी पटना की धरती 2004 के चुनाव में ही बन चुकी थी। तब तो लालू के सारथी रहे रामकृपाल ने रंजन यादव को पराजित कर दिया था।

2009 में रंजन यादव ने लालू को ही सीधे पटखनी देकर बदला साध लिया। 2009 में पाटलीपुत्र या पटना साहिब कहीं से भी टिकट नहीं मिलने से खार खाए रामकृपाल ने आखिरकार 2014 लोकसभा चुनाव से ऐन पहले मार्च में लालू से राजनीतिक रिश्ते की आहूति दे दी।

बकौल रामकृपाल - उस दिन की यादें मुझे आज भी शूल की तरह चुभती हैं, जब मुझे यह अहसास हुआ कि जिनका साथ हमने रात-दिन हर स्थिति-परिस्थिति में दिया उन्होंने एक टिकट के लायक भी मुझे नहीं समझा। हवन कुंड में हालिया भेंट पटना साहिब के वर्तमान सांसद शत्रुघ्न सिन्हा का भाजपा के साथ राजनीतिक रिश्ते का हुआ है।


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