रिजल्ट स्कैम : इंटर कॉलेज नहीं खानदानी दुकान कहिए जनाब ...ये है इनका गोरखधंधा
बच्चा राय के कॉलेज की तरह ही बिहार में कई वित्तरहित इंटर कॉलेज चलते हैं जो कॉलेज के संस्थापक के खानदान की चलती-फिरती दुकानें हैं , पूरा परिवार मिलकर उन कॉलेजों का संचालन करता है।
पटना [विनय मिश्र]। हाईस्कूल में राज्य सरकार का अनुशासन चलता है। डिग्री कॉलेजों में विश्वविद्यालय का, लेकिन बिहार का एक-एक इंटर कॉलेज एक-एक खानदान की 'दुकान' है। बच्चा राय का कॉलेज तो बस एक उदाहरण है। बिहार के कोने-कोने में चल रहे 'वित्तरहित' इंटर कॉलेजों के बाहर बोर्ड पर जिस 'महानुभाव' का नाम चमकता, अधिकांश में उन्हीं के खानदान की 'चलती' चलती है।
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रिजल्ट घोटाले के मास्टरमाइंड बच्चा राय के कॉलेज में परिवार के सदस्य से लेकर कई रिश्तेदार बड़े पद से लेकर चतुर्थ श्रेणी के पद पर तैनात हैं। यह कॉलेज एक ट्रस्ट चलाता है। कॉलेज संचालन करने वाली इस ट्रस्ट की प्रमुख हैं बच्चा राय की मां लालमुनी देवी। सचिव हैं पिता राजदेव राय। अमित कुमार की पत्नी संगीता राय लिपिक हैं, जबकि भाई जितेन्द्र उर्फ जज साहब की पत्नी संगीता हेड क्लर्क।
पहले बहनोई रंजन की बहन रतन माया भी थीं, लेकिन अब वह दूसरे कॉलेज में तैनात हैं। बड़े बहनोई क्लर्क हैं। चचेरे भाई रामचंद्र का लड़का एकाउंट का काम संभाल रहा है। चचेरे भाई कन्हाई, फुफेरा भाई नवल किशोर और मामा भागदेव राय भी चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी हैं।
सब मिलकर चलाते 'इंटर' की दुकान
वैशाली जिला ही नहीं राज्य के हर जिले में ऐसे 10-20 कॉलेज मिल जाएंगे, जो खुले थे दादा या पिता के नाम पर और वहां अब वहां उसी परिवार का राज चलता है। परिवार के दर्जनों लोग वहां नौकरी करते हैं। दूसरा धंधा-व्यवसाय करने वाले परिवार के अन्य लोगों के भी 'नाम' चलते हैं। स्थायी और अस्थायी प्रबंध समिति में परिवार के लोग शामिल होते हैं।
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जनप्रतिनिधि के रूप में अपनी पसंद के सांसद-विधायक या एमएलसी को रखा जाता है। सरकारी प्रतिनिधि के रूप में बीडीओ या सीओ प्रबंध समिति में रहते तो हैं, लेकिन बस नाम के। कॉलेज चलाने वाला परिवार उन्हें भी मैनेज करता है। इंटर काउंसिल ने नियम तो बनाये हैं, लेकिन औचक निरीक्षण और परीक्षा-रजिस्ट्रेशन के समय सब मैनेज होता है।
लाखों का अनुदान, बांट लेता खानदान
वित्तरहित शिक्षा नीति समाप्त करने की घोषणा के साथ सरकार ने तय किया था कि इन कॉलेजों को रिजल्ट आधारित अनुदान दिया जाएगा। 50 लाख से 80 लाख रुपए तक अनुदान मिलता है। अधिकांश कॉलेज में बंदरबांट चलती है। इसे पहले परिवार के प्राचार्य, प्रोफेसर, बड़ा बाबू में बांट दिया जाता है।
ऐसे कॉलेज में सबसे उपेक्षित होते हैं वे प्रोफेसर जो 'संस्थापक परिवार' से ताल्लुक नहीं रखते। अच्छी डिग्री लेकर कॉलेज में पढ़ाने का सपना लेकर नौकरी करने आए। जो थोड़ी-बहुत पढ़ाई होती, इन्हीं की बदौलत। सबसे अधिक अन्याय होता इन्हीं के खिलाफ।
फीस से होती कमाई
इंटर कॉलेज में एक बच्चे की दो साल की पढ़ाई का नियमानुसार खर्च 1500 रुपये के आसपास है। लेकिन कॉलेज उनसे 2000 से 3000 हजार रुपये वसूलते हैं। विभिन्न मदों में उनसे उगाही होती है। फस्र्ट क्लास और सेकेंड क्लास का खेल अलग है। रजिस्ट्रेशन से लेकर माइग्र्रेशन सर्टिफिकेट के लिए बच्चों से मनमाने ढंग से फीस ली जाती है।
इससे होने वाली लाखों की कमाई कॉलेज पर काबिज परिवार के खाते में जाती है। सरकार को नियमानुसार जो शुल्क देना है, उसके बाद जो बचता है, वह खानदान की बचत है। कॉलेज के दो बैंक खाते होते। इससे ज्यादा भी। असली खाते में नंबर एक का पैसा जमा होता है। दूसरे खाते में नंबर दो का। डिग्र्री मैनेज करना नंबर तीन का पैसा है। उसका कोई हिसाब नहीं रहता।
जानिए, कैसे खुले ये कॉलेज
- अस्सी और नब्बे के दशक में सरकार की अनुमति से सैकड़ों वित्तरहित कॉलेज खुले। सरकार बस उन्हें मान्यता देती थी। सैलरी और अन्य आधारभूत संरचना का खर्च दानदाता उठाते थे या प्रबंध समिति व्यवस्था करती थी।
- एमपी, एमएलए और अन्य नेताओं के नाम पर कॉलेज खुले। समाज के धनी-मानी लोगों ने भी अपने नाम पर या अपने पिता-दादा के नाम पर कॉलेज खोल दिए। प्रबंध समिति से लेकर फैकल्टी तक पर खानदान का कब्जा दिखा।
- अधिकांश कॉलेज में प्रोफेसर से लेकर चतुर्थ श्रेणी तक के कर्मचारियों की नियुक्ति में बस डिग्र्री मानक थी। न तो इंटरव्यू हुए न ही परीक्षा। एमए पास लोग प्रोफेसर बन गए। बीए पास क्लर्क और उससे कम पढ़े थे तो चपरासी या गार्ड।
- वर्षों तक वित्तरहित शिक्षण संस्थानों को वित्तसहित करने के लिए आंदोलन चले।
- मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने वित्तरहित शिक्षा नीति को समाप्त करते हुए ऐसे संस्थानों को रिजल्ट आधारित अनुदान देना शुरू किया। प्रबंध समिति और परिचालन संबंधी नियम भी बनाए गए, लेकिन वे अभी भी शिथिल हैं। प्रत्यक्ष तौर पर सरकार सिर्फ परीक्षा और रिजल्ट को ही नियंत्रित कर पाती है।